|
षोडश अध्याय
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् ।। 2 ।।
मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्त:करण की उपरति अर्थात चित्त की चंचलता का अभाव किसी की निन्दादि न करना, सब भूतप्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों के संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव ।। 2 ।।
प्रश्न- ‘अहिंसा’ किसे कहते हैं?
उत्तर- किसी भी प्राणी को कभी कहीं भी लोभ, मोह या क्रोधपूर्वक अधिक मात्रा में, मध्य मात्रा में या थोड़ा-सा भी किसी प्रकार का कष्ट स्वयं देना, दूसरे से दिलवाना या कोई किसी को कष्ट देता हो तो उसका अनुमोदन करना हर हालत में हिंसा है। इस प्रकार की हिंसा का किसी भी निमित्त से मन, वाणी, शरीर द्वारा न करना अर्थात् मन से किसी का बुरा न चाहना; वाणी से किसी को न तो गाली देना, न कठोर वचन कहना और न किसी प्रकार के हानिकारक वचन ही कहना तथा शरीर से न किसी को मारना, न कष्ट पहुँचाना और न किसी प्रकार की हानि पहुँचाना आदि-ये सभी अहिंसा के भेद हैं।
प्रश्न- ‘सत्य’ किसको कहते हैं?
उत्तर- इन्द्रियों और अन्तःकरण से जैसा कुछ देखा, सुना और अनुभव किया गया हो- दूसरों को ठीक वैसा ही समझाने के लिये कपट छोड़कर जो यथासम्भव प्रिय और हितकर वाणी का उच्चारण किया जाता है- उसे ‘सत्य’ कहते हैं।
प्रश्न- ‘अक्रोधः’ पद का क्या भाव है?
उत्तर- स्वभावदोष से अथवा किसी के द्वारा अपमान, अपकार, निन्दा या मन के प्रतिकूल कार्य किये जाने पर, दुर्वचन सुनकर अथवा किसी का अनीतियुक्त कार्य देखकर मन में जो एक द्वेषपूर्ण उत्तेजनामयी वृत्ति उत्पन्न होती है- यह भीतर का क्रोध है, इसके बाद जो शरीर और मन में जलन, मुख पर विकार और नेत्रों में लाली उत्पन्न हो जाती है- यह बढ़े हुए क्रोध का स्वरूप है। उन जलने और जलाने वाली दोनों प्रकार की वृत्तियों का नाम ‘क्रोध’ है। इन वृत्तियों का सर्वथा अभाव ही अक्रोध है।
प्रश्न- ‘त्याग’ किसको कहते हैं?
उत्तर- केवल गुण ही गुणों में बरत रहे हैं मेरा इन कर्मों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है- ऐसा मानकर, अथवा मैं तो भगवान् के हाथ की कठपुतली मात्र हूँ, भगवान् ही अपनी इच्छानुसार मेरे मन, वाणी और शरीर से सब कर्म करवा रहे हैं, मुझमें न तो अपने-आप कुछ करने की शक्ति है और न मैं कुछ करता ही हूँ- ऐसा मानकर कर्तृव्य-अभिमान का त्याग करना ही त्याग है। या कर्तव्यकर्म करते हुए उनमें ममता, आसक्ति, फल और स्वार्थ का सर्वथा त्याग करना भी त्याग है, एवं आत्मोन्नति में विरोधी वस्तु, भाव और क्रियामात्र के त्याग का नाम भी ‘त्याग’ कहा जा सकता है।
|
|