श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षोडश अध्याय
उत्तर- परमात्मा के स्वरूप को यथार्थ से जान लेने का नाम ‘ज्ञान’ है; और उसकी प्राप्ति के लिये जो परमात्मा के ध्यान में निरन्तर स्थित रहना है, उसे ‘ज्ञानयोगव्यवस्थिति’ कहते हैं। प्रश्न- ‘दानम्’ पद का क्या भाव है? उत्तर- कर्तव्य समझकर देश, काल और पात्रका विचार करके निष्काम भाव से जो अन्न, वस्त्र, विद्या और औषधादि वस्तुओं का वितरण करना है-उसका नाम ‘दान’ है।[1] प्रश्न- ‘दमः’ पद का क्या भाव है? उत्तर- इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटाकर उन्हें अपने वश में कर लेना ‘दम’ है। प्रश्न- ‘यज्ञः’ पद का क्या अभिप्राय है? उत्तर- भगवान् की तथा देवता, ब्राह्मण, महात्मा, अतिथि, माता-पिता और बड़ों की पूजा करना; हवन करना और बलिवैश्वदेव करना आदि सब यज्ञ हैं। प्रश्न- ‘स्वाध्याय’ किसको कहते हैं? उत्तर- वेद का अध्ययन करना; जिनमें विवेक-वैराग्य का तथा भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व, स्वरूप एवं उनकी दिव्य लीलाओं का वर्णन हो- उन शास्त्र, इतिहास और पुराण आदि का पठन-पाठन करना एवं भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन करना आदि सभी स्वाध्याय हैं। प्रश्न- ‘तपः’ पद यहाँ किसका वाचक है? उत्तर- अपने धर्म का पालन करने के लिये कष्ट सहन करके जो अन्तःकरण और इन्द्रियों को तपाना है, उसी का नाम यहाँ ‘तपः’ पद है। सत्रहवें अध्याय में जिस शारीरिक‚ वाचिक और मानसिक तप का निरूपण है- यहाँ ‘तपः’ पद से उसका निर्देश नहीं है; क्योंकि उसमें अहिंसा, सत्य, शौच, स्वाध्याय और आर्जव आदि जिन लक्षणों का तप के अंगरूप में निरूपण हुआ है- यहाँ उनका अलग वर्णन किया गया है। प्रश्न- ‘आर्जव’ किसको कहते हैं? उत्तर- शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण की सरलता को ‘आर्जव’ कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 17। 20
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