श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
उत्तर- जिस समय भगवान् ने अर्जुन को दिव्यदृष्टि देकर अपनी असाधारण योगशक्ति के सहित विराट् रूप देखने के लिये आज्ञा दी[1], उसी समय का वाचक यहाँ ‘तदा’ पद है। प्रश्न- ‘जगत्’ पद के साथ ‘अनेकधा प्रविभक्तम्’ और ‘कृत्स्नम्’ विशेषण देकर क्या भाव दिखलाया गया है? उत्तर- इन विशेषणों का प्रयोग करके यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि देवता-मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग और वृक्ष आदि भोक्तृवर्ग, पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग और पाताल आदि भोग्यस्थान एवं उनके भोगने योग्य असंख्य सामग्रियों के भेद से विभक्त- इस समस्त ब्रह्माण्ड को अर्जुन ने भगवान् के शरीर के एक देश में देखा, अर्थात् इसके किसी एक अंश को देखा हो या इसके समस्त भेदों को विभिन्न भाव से पृथक्-पृथक् न देखकर मिलेजुले हुए देखा हो-ऐसी बात नहीं है, समस्त विस्तार को ज्यों-का-त्यों पृथक्-पृथक् देखा। प्रश्न- ‘एकस्थम्’ के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- दसवें अध्याय के अन्त में भगवान् ने जो यह बात कही थी कि इस सम्पूर्ण जगत् को मैं एक अंश में धारण किये हुए स्थित हूँ, उसी को यहाँ अर्जुन ने प्रत्यक्ष देखा। इसी बात को स्पष्ट करने के लिये ‘एकस्थम्’ अर्थात् ‘एक देश में स्थित’ पद का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- ‘तत्र’ पद किसका विशेषण है और इसके प्रयोग का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘तत्र’ पद के पूर्व के वर्णन से सम्बन्ध रखता है और यहाँ यह देवों के देव भगवान् के शरीर का विशेषण है। इसका प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि देवताओं के भी देवता, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि देवताओं के भी पूज्य भगवान् श्रीकृष्ण के उपर्युक्त रूप में पाण्डुपुत्र अर्जुन ने समस्त जगत् को एक जगह स्थित देखा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11। 8
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