श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टम अध्याय
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृतिं चैव योगिन: ।
उत्तर- यहाँ ‘काल’ शब्द उस मार्ग का वाचक है जिसमें कालाभिमानी भिन्न-भिन्न देवताओं का अपनी-अपनी सीमा तक अधिकार है। प्रश्न- यहाँ ‘काल’ शब्द का अर्थ ‘समय’ मान लिया जाय तो क्या हानि है? उत्तर- छब्बीसवें श्लोक में इसी को ‘शुक्ल’ और ‘कृष्ण’ दो प्रकार की ‘गति’ के नाम से और सत्ताईसवें श्लोक में ‘सृति’ के नाम से कहा है। वे दोनों ही शब्द मार्गवाचक हैं। इसके सिवा ‘अग्निः’, ‘ज्योतिः’ और ‘धूमः’ पद भी समयवाचक नहीं है। अतएव चौबीसवें और पचीसवें श्लोकों में आये हुए ‘तत्र’ पद का अर्थ ‘समय’ मानना उचित नहीं होगा। इसीलिये यहाँ ‘काल’ शब्द का अर्थ कालाभिमानी देवताओं से सम्बन्ध रखने वाला ‘मार्ग’ मानना ही ठीक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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