अष्टम अध्याय
प्रश्न- आठवें से दसवें श्लोक तक इस अव्यक्त पुरुष की उपासना का प्रकरण आ चुका है, फिर उसे यहाँ दुबारा लाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- यद्यपि दोनों ही जगह अव्यक्त पुरुष की ही उपासना का वर्णन है- इसमें कोई सन्देह नहीं, परन्तु इतना भेद है कि वहाँ आठवें, नवें और दसवें श्लोकों में तो योगी पुरुषों द्वारा प्राप्त किये जाने वाले केवल अन्तकालीन साधन का फलसहित वर्णन है और यहाँ सर्वसाधारण के लिये सदा-सर्वदा की जा सकने वाली अनन्य-भक्ति का और उसके द्वारा उसी परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन है। इसी अभिप्राय से उस उपासना के प्रकरण को यहाँ पुनः लाया गया है।
प्रश्न- ‘अनन्यभक्ति’ किसको कहते हैं और उसके द्वारा परम पुरुष का प्राप्त होना क्या है?
उत्तर - सर्वाधार, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान् परमेश्वर में ही सब कुछ समर्पण करके उनके विधान में सदा परम सन्तुष्ट रहना और सब प्रकार से अनन्य प्रेमपूर्वक नित्य-निरन्तर उनका स्मरण करना ही अनन्य-भक्ति है। इस अनन्य भक्ति के द्वारा साधक अपने उपास्येदव परमेश्वर के गुण, स्वभाव और तत्त्व को भलीभाँति जानकर उनमें तन्मय हो जाता है और शीघ्र ही उसका साक्षात्कार करके कृतकृत्य हो जाता है। यही साधक का उस परमेश्वर को प्राप्त कर लेना है।
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