श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टम अध्याय
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन: ।
उत्तर- अठारहवें श्लोक में जिस ‘अव्यक्त’ में समस्त व्यक्तियों (भूत-प्राणियों) का लय होना बतलाया गया है, उसी वस्तु का वाचक यहाँ ‘तस्मात्’ विशेषण के सहित ‘अव्यक्तात्’ पद है; उससे भिन्न दूसरा ‘अव्यक्तभाव’ (तत्त्व) वह है जिसका इस अध्याय के चौथे श्लोक में ‘अधियज्ञ’ नाम से, नवें श्लोक में ‘कवि’, ‘पुराण’ आदि नामों से, आठवें और दसवें श्लोकों में ‘परम दिव्य पुरुष’ के नाम से, बाईसवें श्लोक में ‘परम पुरुष’ के नाम से और नवम अध्याय के चौथे श्लोक में ‘अव्यक्तमूर्ति’ के नाम से वर्णन किया गया है। पूर्वोक्त ‘अव्यक्त’ से इस ‘अव्यक्त’ को ‘पर’ और ‘अन्य’ बतलाकर उससे इसकी अत्यन्त श्रेष्ठता और विलक्षणता सिद्ध की गयी है। अभिप्राय यह है कि दोनों वस्तुओं का स्वरूप ‘अव्यक्त‘ होने पर भी दोनों एक जाति की वस्तु नहीं है। वह पहला ‘अव्यक्त’ जड़, नाशवान् और ज्ञेय है; परंतु यह दूसरा चेतन, अविनाशी और ज्ञाता है। साथ ही यह उसका स्वामी, संचालक और अधिष्ठाता है; अतएव यह उससे अत्यन्त श्रेष्ठ और विलक्षण है। अनादि और अनन्त होने के कारण इसे ‘सनातन’ कहा गया है। प्रश्न- ‘वह सनातन अव्यक्त सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता’- इस वाक्य में ‘सब भूतों’ से किसका लक्ष्य है? उनका नाश होना और उस समय उस सनातन अव्यक्त का नष्ट न होना वस्तुतः क्या है? उत्तर- ब्रह्मा से लेकर ब्रह्मा के दिन-रात्रि में उत्पन्न और विलीन होने वाले अपने-अपने मन, इन्द्रिय, शरीर, भोग्यवस्तु और वासस्थानों के सहित जितने भी चराचर प्राणी हैं, ‘सब भूतों’ से यहाँ उन सभी का लक्ष्य है। महाप्रलय के समय स्थूल और सूक्ष्म शरीर से रहित होकर जो ये अव्याकृत माया नामक मूल-प्रकृति में लीन हो जाते हैं, वही इनका नाश है। उस समय भी उस प्रकृति के अधिष्ठाता सनातन अव्यक्त परम दिव्य पुरुष परमेश्वर प्रकृति सहित उन समस्त जीवों को अपने में लीन करने अपनी ही महिमा में स्थित रहते हैं, यही उनका समस्त भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट न होना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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