श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टम अध्याय
उत्तर- ‘अवशः’ पद ‘भूतग्रामः’ का विशेषण है। जो किसी दूसरे के अधीन हो, स्वतन्त्र न हो, उसे अवश या परवश कहते हैं। ये अव्यक्त से उत्पन्न और पुनः अव्यक्त में ही लीन होने वाले समस्त प्राणी अपने-अपने स्वभाव के वश हैं अर्थात् अनादिसिद्ध भिन्न-भिन्न गुण और कर्मों के अनुसार जो इन सबकी भिन्न-भिन्न प्रकृति है, उस प्रकृति या स्वभाव के वश होने के कारण ही इनका बार-बार जन्म और मरण होता है; इसीलिये तेरहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में भगवान् ने कहा है कि ‘प्रकृति में स्थित पुरुष ही प्रकृतिजन्य गुणों को अर्थात् सुख-दुःखों को भोगता है एवं प्रकृति का संग ही इसके अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।’ इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो जीव प्रकृति से उस पार पहुँचकर परमात्मा को प्राप्त हो गया है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। प्रश्न- स्वभाव के पराधीन समस्त भूतप्राणी जो बार-बार उत्पन्न होते हैं, उन्हें उनके अपने-अपने गुण और कर्मों के अनुसार ठीक-ठीक व्यवस्था के साथ उत्पन्न करने वाला कौन है? प्रकृति, परमेश्वर, ब्रह्मा अथवा कोई और ही? उत्तर- यहाँ ब्रह्मा के दिन-रात का प्रसंग होने से यही समझना चाहिये कि ब्रह्मा ही समस्त प्राणियों को उनके गुण-कर्मानुसार शरीरों से सम्बद्ध करके बार-बार उत्पन्न करते हैं। महाप्रलय के बाद जिस समय ब्रह्मा की उत्पत्ति नहीं होती, उस समय तो सृष्टि की रचना स्वयं भगवान् करते हैं; परंतु ब्रह्मा के उत्पन्न होने के बाद सबकी रचना ब्रह्मा ही करते हैं। नवें अध्याय में (श्लोक 7 से 10) और चौदहवें अध्याय में (श्लोक 3, 4) जो सृष्टिरचना का प्रसंग है, वह महाप्रलय के बाद महासर्ग के आदिकाल का है और यहाँ का वर्णन ब्रह्मा की रात्रि के (प्रलय के) बाद ब्रह्मा के दिन के (सर्ग के) आरम्भ समय का है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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