|
सप्तम अध्याय
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु: ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:।। 30 ।।
जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव के सहित तथा अधियज्ञ के सहित (सब का आत्मरूप) मुझे अन्तकाल में भी जानते हैं वे युक्त चित्त वाले पुरुष मुझे जानते हैं अर्थात प्राप्त हो जाते हैं।। 30 ।।
प्रश्न- ‘अधिभूत’, ‘अधिदैव’ और ‘अधियज्ञ’ शब्द किन-किन तत्त्वों के वाचक हैं और इन सबके सहित समग्र भगवान् को जानना क्या है?
उत्तर- इस अध्याय में जिसको भगवान् ने ‘अपरा प्रकृति’ और पंद्रहवें अध्याय में जिसको ‘क्षर पुरुष’ कहा है, उस विनाशशील समस्त जडवर्ग का नाम ‘अधिभूत’ है। आठवें अध्याय में जिसे ‘ब्रह्मा’ कहा है, उस सूत्रात्मा हिरण्यगर्भ का नाम ‘अधिदैव’ है और नवम अध्याय के चौथे, पाँचवें तथा छठे श्लोकों में जिसका वर्णन किया गया है, उस समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में अन्तर्यामीरूप से व्याप्त रहने वाले भगवान् के अव्यक्तस्वरूप का नाम ‘अधियज्ञ’ है। उनतीसवें श्लोक में वर्णित ‘ब्रह्म’ जीवसमुदायरूप ‘अध्यात्म’, भगवान् का आदि-संकल्परूप ‘कर्म’ तथा उपर्युक्त जडवर्गरूप ‘अधिभूत’ हिरण्यगर्भरूप ‘अधिदैव’ और अन्तर्यामीरूप ‘अधियज्ञ’-सब एक भगवान् के ही स्वरूप हैं। यही भगवान् का समग्ररूप है। अध्याय के आरम्भ में भगवान् ने इसी समग्ररूप को बतलाने की प्रतिज्ञा की थी। फिर सातवें श्लोक में ‘मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है, बारहवें में ‘सात्त्विक, राजस और तामस भाव सब मुझसे ही होते हैं’ और उन्नीसवें में ‘सब कुछ वासुदेव ही है’ कहकर इसी समग्र का वर्णन किया है तथा यहाँ भी उपर्युक्त शब्दों से इसी का वर्णन करके अध्याय का उपसंहार किया गया है। इस समग्र को जान लेना अर्थात् जैसे परमाणु, भाप, बादल, धूम, जल और बर्फ सभी जलस्वरूप ही हैं, वैसे ही ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ- सब कुछ वासुदेव ही हैं- इस प्रकार यथार्थरूप से अनुभव कर लेना ही समग्र ब्रह्म को या भगवान् को जानना है।
|
|