श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
अड़तालीसवें में योग की परिभाषा समत्व बतलाकर उनचासवें में समबुद्धि की अपेक्षा सकाम कर्मों को अत्यन्त तुच्छ और फल चाहने वालों को अत्यन्त दीन बतलाया है। पचासवें और इक्यावनवें में समबुद्धियुक्त कर्मयोगी की प्रशंसा करके अर्जुन को कर्मयोग में लग जाने की आज्ञा दी है और समभाव का फल अनामय पद की प्राप्ति बतलाया है। उसके बाद बावनवें और तिरपनवें में भगवान् ने वैराग्यपूर्वक बुद्धि के शुद्ध, स्वच्छ और निश्चल हो जाने पर परमात्मा की प्राप्ति बतलायी है। चौवनवें में अर्जुन ने स्थिर बुद्धि पुरुष के विषय में चार प्रश्न किये हैं तथा पचपनवें में पहले प्रश्न का, छप्पनवें तथा सत्तावनवें में दूसरे का तथा अट्ठावनवें में तीसरे प्रश्न का सूत्ररूप से उत्तर देते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने पचपनवें से अट्ठावनवें तक समस्त कामनाओं का अभाव, बाह्य साधनों की अपेक्षा न रखकर अन्तरात्मा में ही सदा सन्तुष्ट रहना, दुःखों से उद्विग्न न होना, सुखों में स्पृहा न करना, राग, भय और क्रोध का सर्वथा अभाव, शुभाशुभ की प्राप्ति में हर्ष-शोक और राग-द्वेष का न होना तथा समस्त इन्द्रियों को विषयों से हटाकर अपने वश में रखना आदि, स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षणों का वर्णन किया है। उनसठवें में इन्द्रियों द्वारा विषयों का ग्रहण न करने से विषयों की निवृत्ति हो जाने पर भी राग की निवृत्ति नहीं होती, उसी निवृत्ति तो परमात्मदर्शन से होती है- यह बात कहकर, साठवें में इन्द्रियों की प्रबलता का निरूपण किया है। इकसठवें में मन और इन्द्रियों के संयमपूर्वक भगवत्परायण होने के लिये कहकर इन्द्रियविजयी पुरुष की प्रशंसा की है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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