सप्तम अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार मनुष्य के रूप में प्रकट सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को लोग साधारण मनुष्य क्यों समझते हैं ? इस पर कहते हैं-
नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:।
मूढ़ोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।। 25 ।।
अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिये यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता अर्थात मुझको जन्म मरने वाला समझता है।। 25 ।।
प्रश्न- ‘योगमाया’ शब्द किसका वाचक है? और भगवान् का उससे समावृत होना क्या है?
उत्तर- चौथे अध्याय के छठे श्लोक में भगवान् ने जिसका ‘आत्ममाया’ कहा है, जिस योगशक्ति से भगवान् दिव्य गुणों के सहित स्वयं मनुष्यादि रूपों में प्रकट होते हुए भी लोकदृष्टि में जन्म धारण करने वाले साधारण मनुष्य-से ही प्रतीत होते हैं, उसी मायाशक्ति का नाम ‘योगमाया’ है। भगवान् जब मनुष्यादि रूप में अवतीर्ण होते हैं तब जैसे बहुरूपिया किसी दूसरे स्वाँग में लोगों के सामने आता है उस समय अपना असली रूप छिपा लेता है वैसे ही अपनी उस योगमाया को चारों ओर फैलाकर स्वयं उसमें छिपे रहते हैं; यही उनका योगमाया से आवृत होना है।
प्रश्न- ‘मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि भगवान् अपनी योगमाया से छिपे रहते हैं, साधारण मनुष्यों की दृष्टि उस माया के परदे से पार नहीं हो सकती। इस कारण अधिकांश मनुष्य उनको अपने-जैसा ही साधारण मनुष्य मानते हैं। अतएव भगवान् सबके प्रत्यक्ष नहीं होते। जो भगवान् के प्रेमी भक्त होते हैं तथा उनके गुण, प्रभाव, स्वरूप और लीला में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखते हैं, जिनको भगवान् अपना परिचय देना चाहते हैं केवल उन्हीं के वे प्रत्यक्ष होते हैं।
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