श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तम अध्याय
उत्तर- भगवान् के निर्गुण-सगुण दोनों ही रूप नित्य और दिव्य हैं। वे अपने अचिन्त्य और अलौकिक दिव्य स्वरूप, स्वभाव, प्रभाव और गुणों को लिये हुए ही मनुष्य आदि रूपों में अवतार धारण करते हैं। मनुष्यादि के रूपों में उनका प्रादुर्भाव होना ही जन्म है और अन्तर्धान हो जाना ही परमधामगमन है। अन्य प्राणियों की भाँति शरीर-संयोग-वियोगरूप जन्म-मरण उनके नहीं होते। इस रहस्य को न समझने के कारण बुद्धिहीन मनुष्य समझते हैं कि जैसे अन्य सब प्राणी जन्म से पहले अव्यक्त थे अर्थात् उनकी कोई सत्ता नहीं थी, अब जन्म लेकर व्यक्त हुए हैं; इसी प्रकार यह श्रीकृष्ण भी जन्म से पहले नहीं था। अब वसुदेव के घर में जन्म लेकर व्यक्त हुआ है। अन्य मनुष्यों में और इसमें अन्तर ही क्या है? अर्थात् कोई भेद नहीं है। यह भाव दिखाने के लिये ऐसा कहा है कि बुद्धिहीन मनुष्य मुझ अव्यक्त से व्यक्त हुआ मानते हैं। प्रश्न- यदि यह अर्थ मान लिया जाय कि ‘बुद्धिहीन’ मनुष्य मुझ अव्यक्त को अर्थात् निर्गुण-निराकार परमेश्वर को सगुण-साकार मनुष्यरूप में प्रकट होने वाला मानते हैं तो क्या हानि है? उत्तर- यहाँ यह अर्थ मानना उपयुक्त नहीं जँचता, क्योंकि भगवान् के निर्गुण-सगुण, निराकार-साकार सभी स्वरूप शास्त्रसम्मत हैं। स्वयं भगवान् ने कहा है कि ‘मैं अजन्मा अविनाशी परमेश्वर ही अपनी प्रकृति को स्वीकार करके साधुओं के परित्राण, दुष्टों के विनाश और धर्म से संस्थापनादि के लिये समय-समय पर प्रकट होता हूँ।[1] अतः उनको बुद्धिहीन मानने पर भगवान् के इस कथन से विरोध आता है और अवतारवाद का खण्डन होता है, जो गीता को किसी प्रकार भी मान्य नहीं है। प्रश्न- यदि यहाँ इसका यह अर्थ मान लिया जाय कि ‘बुद्धिहीन मनुष्य’ मुझ ‘व्यक्तिमापन्नम्’ अर्थात् मनुष्यरूप में प्रत्यक्ष प्रकट हुए सगुण-साकार परमेश्वर को अव्यक्त अर्थात् निगुर्ण-निराकार समझते हैं, तो क्या हानि है? उत्तर- यह अर्थ भी नहीं जँचता है; क्योंकि जो परमेश्वर सगुण-साकार रूप में प्रकट हैं, वे निर्गुण-निराकार भी हैं। इसीलिये इस यथार्थ तत्त्व को समझने वाला पुरुष बुद्धिहीन कैसे माना जा सकता है। भगवान् ने स्वयं कहा है कि मुझ अव्यक्त (निराकार)- स्वरूप से यह समस्त जगत् व्याप्त है।[2] अतएव जो अर्थ किया गया है, वही ठीक मालूम होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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