श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तम अध्याय
मत्त: परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय ।
उत्तर- इससे यह भाव दिखाया गया है कि जैसे महाकाश बादल का कारण और आधार है और उसका कार्य बादल उसी महाकाश का स्वरूप है, वास्तव में वह अपने कारण से कुछ भिन्न वस्तु नहीं है, वैसे ही परमात्मा इस जगत् के कारण और आधार होने से यह जगत् भी उन्हीं का स्वरूप है, उनसे भिन्न दूसरी वस्तु नहीं है। अतः परा और अपरा प्रकृति सब भूतों की कारण होते हुए भी सबका परम कारण परमात्मा है, दूसरा कोई नहीं है। प्रश्न- सूत्र में सूत्र के मनियों की भाँति यह जगत् भगवान् में कैसे गुँथा हुआ है? उत्तर- जैसे सूत की डोरी में उसी सूत की गाँठें लगाकर उन्हें मनिये मानकर माला बना लेते हैं और जैसे उस डोरी में और गाँठों के मनियों में सर्वत्र केवल सूत ही व्याप्त रहता है, उसी प्रकार यह समस्त संसार भगवान् में गुँथा हुआ है। मतलब यह कि भगवान् ही सबमें ओत-प्रोत हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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