श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति: ।
उत्तर- जो अभ्यास और वैराग्य के द्वारा अपने मन को वश में नहीं कर लेते, उनके मन पर राग-द्वेष का अधिकार रहता है और राग-द्वेष की प्रेरणा से वह बंदर की भाँति संसार में ही इधर-उधर उछलता-कूदता रहता है। जब मन भोगों में इतना आसक्त होता है, तब उसकी बुद्धि भी बहुशाखा वाली और अस्थिर ही बनी रहती है।[1] ऐसी अवस्था में उसे ‘समत्वयोग’ की प्राप्ति कैसे हो सकती है? इसीलिये ऐसा कहा गया है। प्रश्न- वश में हो जाने पर मन के क्या लक्षण होते हैं? उत्तर- वश में हो जाने पर इसकी चंचलता, प्रमथनशीलता, बलवत्ता और कठिन आग्रहकारिता दूर हो जाती है। सीधे, सरल, शान्त और अनुगत शिष्य की भाँति यह इतना आज्ञाकारी हो जाता है कि फिर जब, जहाँ और जितनी देर तक इसे लगाया जाय, यह चुपचाप लग जाता है। न वहाँ लगने में जरा भी आनाकानी करता है, न इन्द्रयों की बात सुनकर कही जाना चाहता है, न अपनी इच्छा से हटता है, न ऊबता है और न उपद्रब ही मचाता है। बड़ी शान्ति के साथ इष्ट वस्तु में इतना घुल-मिल जाता है कि फिर सहज में यह भी पता नहीं लगता कि इसका अलग अस्तित्व भी है या नहीं। यही मन का वास्तव में वश में होना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2। 41-44
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