श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
उत्तर- इससे भगवान् अर्जुन की उक्ति का समर्थन करके मन की चंचलता और उसके निग्रह की कठिनता को स्वीकार करते हैं। प्रश्न- यहाँ ‘तु’ का क्या भाव है? उत्तर- यद्यपि मन का वश में होना बड़ा कठिन है, परंतु अभ्यास और वैराग्य से यह सहज ही वश में हो सकता है। यही दिखलाने और आश्वासन देने के लिये ‘तु’ का प्रयोग किया गया है। प्रश्न - अभ्यास क्या है? उत्तर- मन को किसी लक्ष्य-विषय में तदाकार करने के लिये, उसे अन्य विषयों से खींच-खींचकर बार-बार उस विषय में लगाने के लिये किये जाने वाले प्रयत्न का नाम अभ्यास है। यह प्रसंग परमात्मा में मन लगाने का है, अतएव परमात्मा को अपना लक्ष्य बनाकर चित्तवृत्तियों के प्रवाह को बार-बार उन्हीं की ओर लगाने का प्रयत्न करना यहाँ ‘अभ्यास’ है।[2] प्रश्न- चित्तवृत्तियों को परमात्मा की ओर लगाने का अभ्यास कैसे करना चाहिये? उत्तर- परमात्मा ही सर्वोपरि, सर्वशक्तिमान्, सर्वेश्वर और सबसे बढ़कर एकमात्र परमतत्त्व हैं तथा उन्हीं को प्राप्त करना जीवन का परम लक्ष्य है- इस बात को दृढ़ धारणा करके अभ्यास करना चाहिये। अभ्यास के अनेकों प्रकार शास्त्रों में बतलाये गये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ठीक इसी आशय के सूत्र पातंजलयोगदर्शन में-
‘अभ्यासवैराग्याभयां तन्निरोधः’ (1। 12) ‘अभ्यास और वैराग्य से चित्तवृत्तियों का निरोध होता है।’ - ↑ -‘तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः’ (1। 13)। ‘उनमें से स्थिति के लिये प्रयत्न करने का नाम अभ्यास है।’
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज