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षष्ठ अध्याय
रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्माचारिव्रते स्थित: ।
मन: संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर:।। 14 ।।
ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, भयरहित भलीभाँति शान्त अंत:करण वाला सावधान योगी मन को रोक कर मुझमें चित्त वाला और मेरे परायण होकर स्थित होवे ।।14।।
प्रश्न- यहाँ ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित रहना क्या है?
उत्तर- ब्रह्मचर्य का तात्विक अर्थ दूसरा होने पर भी, वीर्यधारण उसका एक प्रधान अर्थ है और यहाँ वीर्यधारण अर्थ ही प्रसंगानुकूल भी है। मनुष्य के शरीर में वीर्य ही एक ऐसी अमूल्य वस्तु है जिसका भलीभाँति संरक्षण किये बिना शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक-किसी प्रकार का भी बल न तो प्राप्त होता है और न उसका संचय ही होता है। इसीलिये आर्य संस्कृति के चारों आश्रमों में ब्रह्मचर्य प्रथम आश्रम है, जो तीनों आश्रमों की नींव है। ब्रह्मचर्य-आश्रम में ब्रह्मचारी के लिये बहुत-से नियम होते हैं, जिनके पालन से वीर्यधारण में बड़ी भारी सहायकता मिलती है। ब्रह्मचर्य के पालन से यदि वास्तव में वीर्य भलीभाँति धारण हो जाय तो उस वीर्य से शरीर के अंदर एक विलक्षण विद्युत-शक्ति उत्पन्न होती है और उसका तेज इतना शक्तिशाली होता है कि उस तेज के कारण अपने-आप ही प्राण और मन की गति स्थिर हो जाती है और चित्त का एकतान प्रवाह ध्येय वस्तु की ओर स्वाभाविक ही होने लगता है। इस एकतानता का नाम ही ध्यान है। आजकल चेष्टा करने पर भी लोग जो ध्यान नहीं कर पाते, उनका चित्त ध्येय वस्तु में नही लगता, इसका एक मुख्यतम कारण यह भी है कि उन्होंने वीर्यधारण नहीं किया है। यद्यपि विवाह होने पर अपनी पत्नी के साथ संयमपूर्ण नियमित जीवन बिताना भी ब्रह्मचर्य ही है और उससे भी ध्यान में बड़ी सहायता मिलती है; परंतु जिसने पहले से ही ब्रह्मचारी के नियमों का सुचारू रूप से पालन किया है और ध्यानयोग की साधना के समय तक जिसके शुक्र का बाह्यरूप में किसी प्रकार भी क्षरण नहीं हुआ है, उसको ध्यानयोग में बहुत शीघ्र और बड़ी सुविधा के साथ सफलता मिल सकती है।
मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में तथा अन्यान्य शास्त्रों में ब्रह्मचारी के लिये पालनीय व्रतों का बड़ा सुन्दर विधान किया गया है, उनमें प्रधान ये हैं-‘ब्रह्मचारी नित्य स्नान करे उबटन न लगावे, सुरमा न डाले, तेल न लगावे, इत्र-फुलेल आदि सुगन्धित वस्तुओं का व्यवहार न करे, फूलों के हार और गहने न पहने, नाचना-गाना-बजाना न करे, जूते न पहने, छाता न लगावे, पलंग पर न सोवे, जूआ न खेले, स्त्रियों को न देखे, स्त्री सम्बन्धी चर्चा तक कभी न करे, नियमित सादा भोजर करे, कोमल वस्त्र न पहने, देवता, ऋषि और गुरु का पूजन-सेवन करे, किसी से विवाद न करे, किसी की निन्दा न करें‚ सत्य बोलें‚ किसी का तिरस्कार न करे, अहिंसाव्रत का पूर्ण पालन करें’ काम‚ क्रोध और लोभ का सर्वथा त्याग कर दे, अकेला सोवे, वीर्यपात कभी न होने दे और इन सब व्रतों का भलीभाँति पालन करे। ये ब्रह्मचारी के व्रत हैं। भगवान ने यहाँ ब्रह्मचारिव्रत’ की बात कहकर आश्रम धर्म की ओर भी संकेत किया है। जो अन्य आश्रमी लोग ध्यानयोग का साधन करते हैं उनके लिये भी वीर्यधारण या वीर्यसंरक्षण बहुत ही आवश्यक है और वीर्यधारण में उपर्युक्त नियम बड़े सहायक हैं। यही ब्रह्मचारी का व्रत है और दृढ़तापूर्वक इसका पालन करना ही उसमें स्थित होना है।
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