पंचम अध्याय
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन: ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ।।16।।
परंतु जिनका वह अज्ञान परमात्मा के तत्त्वज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है ।।16।।
प्रश्न- यहाँ ‘तु’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- पंद्रहवें श्लोक में यह बात कही कि अज्ञान द्वारा ज्ञान के आवृत हो जाने के कारण सब मनुष्य मोहित हो रहे हैं। यहाँ उन साधारण मनुष्यों से आत्मतत्त्व के जानने वाले ज्ञानियों को पृथक् करने के लिये ‘तु’ का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न- यहाँ ‘अज्ञानम्’ के साथ ‘तत्’ के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- पंद्रहवें श्लोक में जिस अज्ञान का वर्णन है, जिस अज्ञान के द्वारा अनादिकाल से सब जीवों का ज्ञान आवृत है, जिसके कारण मोहित हुए सब मनुष्य आत्मा और परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानते, उसी अज्ञान की बात यहाँ कही जाती है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए अज्ञान के साथ ‘तत्’ विशेषण दिया गया है। अभिप्राय यह है कि जिन पुरुषों का वह अनादिसिद्ध अज्ञान परमात्मा के यथार्थ ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, वे मोहित नहीं होते।
प्रश्न- यहाँ सूर्य का दृष्टान्त देने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- जिस प्रकार सूर्य अन्धकार का सर्वथा नाश करके दृश्यमात्र को प्रकाशित कर देता है वैसे ज्ञान भी अज्ञान का नाश करके परमात्मा के स्वरूप को भलीभाँति प्रकाशित कर देता है। जिनको यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, वे कभी, किसी भी अवस्था में मोहित नहीं होते।
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