श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचम अध्याय
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु: ।
उत्तर- ‘विभुः’ पद सबके हृदय में रहने वाले[1] और संपूर्ण जगत् का अपने संकल्प द्वारा संचालन करने वाले, सर्वशक्तिमान् सगुण निराकार परमेश्वर का वाचक है। वह किसी के पुण्य-पापों को ग्रहण नहीं करते, इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि यद्यपि समस्त कर्म उन्हीं की शक्ति, मनुष्यों द्वारा किये जाते हैं। सबको शक्ति बुद्धि और इन्द्रियाँ आदि उनके कर्मानुसार वे ही प्रदान करते हैं, तथापि वे उनके द्वारा किये हुए कर्मों को ग्रहण नहीं करते। अर्थात् स्वयं उन कर्मों के फल के भागी नहीं बनते। प्रश्न- इसी अध्याय के अन्तिम श्लोक में और नवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक में तो भगवान् ने स्वयं यह कहा है कि सम्पूर्ण यज्ञ और तपों का भोक्ता मैं हूँ। फिर यहाँ यह बात कैसे कही कि भगवान् किसी के शुभकर्म भी ग्रहण नहीं करते? उत्तर- सारा विश्व सगुण परमेश्वर का स्वरूप है। इसलिये देवतादि के रूप में भगवान् ही सब यज्ञों के भोक्ता हैं। किंतु ऐसा होने पर भी वास्तव में भगवान् कर्म और कर्मफल से सर्वथा सम्बन्ध रहित हैं। इसी भाव को स्पष्ट करने के लिये यहाँ यह बात कही गयी है कि भगवान् किसी के पुण्य-पाप को ग्रहण नहीं करते। अभिप्राय यह है कि देव, मनुष्य आदि के रूप में समस्त यज्ञों के भोक्ता होने पर भी तथा भक्तों द्वारा अर्पण की हुई वस्तुएँ और क्रियाओं को स्वीकार करते हुए भी वास्तव में उन सबसे उसी प्रकार सम्बन्ध रहित हैं, जैसे जन्म लेकर भी भगवान् अज हैं[2], सृष्टि की रचनादि कर्म करते हुए भी अकर्ता ही हैं।[3] अतः यहाँ यह कहना उचित ही है कि भगवान् किसी के शुभकर्म को ग्रहण नहीं करते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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