श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचम अध्याय
संन्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ ।
उत्तर- ‘सम्’ उपसर्ग का अर्थ है ‘सम्यक् प्रकार से’ और ‘न्यास’ का अर्थ है ‘त्याग’। ऐसा पूर्ण त्याग ही संन्यास है। यहाँ मन, वाणी और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान का और शरीर तथा समस्त संसार में अहंता-ममता का पूर्णतया त्याग ही ‘संन्यास’ शब्द का अर्थ है। गीता में ‘संन्यास’ और ‘संन्यासी’ शब्दों का प्रसंगानुसार विभिन्न अर्थों में प्रयोग हुआ है। कहीं कर्मों के भगवदर्पण करने को ‘संन्यास कहा है[1] तो कहीं काम्यकर्मों के त्याग को[2]; कहीं मन से कर्मों के त्याग को[3] तो कहीं कर्मयोग को[4]; कहीं कर्मों के स्वरूपतः त्याग को[5], तो कहीं सांख्ययोग अर्थात् ज्ञाननिष्ठा को[6] ‘संन्यास’ कहा है। इसी प्रकार कहीं कर्मयोगी को ‘संन्यासी’[7] और ‘संन्यास-योगयुक्तात्मा’[8] कहा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि गीता में ‘संन्यास’ शब्द सभी जगह एक ही अर्थ में व्यवहृत नहीं हुआ है। प्रकरण के अनुसार उसके पृथक्-पृथक् अर्थ होते हैं। यहाँ ‘सांख्ययोग’ और ‘कर्मयोग’ का तुलनात्मक विवेचन है। भगवान् ने चौथे और पाँचवें श्लोकों में ‘संन्यास’ शब्द का अर्थ ‘सांख्ययोग’ ही मानना युक्त है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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