श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचम अध्याय
उत्तर- यह तो ठीक है। परन्तु भगवान् ने चौथे अध्याय में चौबीसवें से तीसवें श्लोक तक कर्मयोग और ज्ञानयोग-दोनों ही निष्ठाओं के अनुसार कई प्रकार के विभिन्न साधनों का यज्ञ के नाम से वर्णन किया और वहाँ द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ की प्रशंसा की[1] और तत्त्वदर्शी ज्ञानियों से ज्ञान का उपदेश प्राप्त करने के लिये प्रेरणा और प्रशंसा की[2] फिर यह भी स्पष्ट कहा कि ‘कर्मयोग से पूर्णतया सिद्ध हुआ मनुष्य तत्त्वज्ञान को स्वयं ही प्राप्त कर लेता है।[3] इस प्रकार दोनों ही साधनों की प्रशंसा सुनकर अर्जुन अपने लिये किसी एक कर्तव्य का निश्चय नहीं कर सके। इसलिये यहाँ वे यदि भगवान् का निश्चित मत जानने के लिये ऐसा प्रश्न करते हैं तो उचित ही करते हैं। यहाँ अर्जुन भगवान् से स्पष्टतया यह पूछना चाहते हैं कि ‘आनन्दकन्द श्रीकृष्ण! आप ही बतलाइये, मुझे यथार्थ तत्त्वज्ञान की प्राप्ति, तत्त्वज्ञानियों द्वारा श्रवण-मनन आदि साधनपूर्वक ‘ज्ञानयोग’ की विधि से करनी चाहिये या आसक्ति रहित होकर निष्काम भाव से भगवदर्पित कर्मों का सम्पादन करके ‘कर्मयोग’ की विधि से? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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