श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
उत्तर- महापुरुषों से परमातम के तत्त्व-ज्ञान का उपदेश पाकर आत्मा को सर्वव्यापी, अनन्त स्वरूप समझना तथा समस्त प्राणियों में भेद-बुद्धि का अभाव होकर सर्वत्र आत्मभाव हो जाना- अर्थात् जैसे स्वप्न से जगा हुआ मनुष्य स्वप्न के जगत् को अपने अन्तर्गत स्मृति मात्र देखता है, वास्तव में अपने से भिन्न अन्य किसी की सत्ता नहीं देखता, उसी प्रकार समस्त जगत् को अपने से अभिन्न और अपने अन्तर्गत समझना सम्पूर्ण भूतों को निःशेषता से आत्मा के अन्तर्गत देखना है।[1] इस प्रकार आत्म ज्ञान होने के साथ ही मनुष्य के शोक और मोह का सर्वथा अभाव हो जाता है। प्रश्न- इस प्रकार आत्मदर्शन हो जाने के बाद सम्पूर्ण भूतों को सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखना क्या है? उत्तर- सम्पूर्ण भूतों को सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखना पूर्वोक्त आत्म दर्शनरूप स्थिति का फल है; इसी को परमपद की प्राप्ति, निर्वाण-ब्रह्म की प्राप्ति और परमात्मा में प्रविष्ट हो जाना भी कहते हैं। इस स्थिति को प्राप्त हुए पुरुष का अहंभाव सर्वथा नष्ट हो जाता है; उस समय उस योगी की परमात्मा से पृथक् सत्ता नहीं रहती, केवल एक सच्चिदानन्दघन ब्रह्म ही रह जाता है। उसका समस्त भूतों को परमात्मा में स्थित देखना भी शास्त्र-दृष्टि से कहने मात्र को ही है; क्योंकि उसके लिये द्रष्टा और दृश्य का भेद ही नहीं रहता, तब कौन देखता है और किसको देखता है? यह स्थिति वाणी से सर्वथा अतीत है, इसलिये वाणी से इसका केवल संकेत मात्र किया जाता है, लोक दृष्टि में उस ज्ञानी के जो मन, बुद्धि और शरीर आदि रहते हैं, उनके भावों को लेकर ही ऐसा कहा जाता है कि वह समस्त प्राणियों को सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में देखता है; क्योंकि वस्तुतः उसकी बुद्धि में सम्पूर्ण जगत् जल में बरफ, आकाश में बादल और स्वर्ण में आभूषणों की भाँति ब्रह्मरूप ही हो जाता है, कोई भी पदार्थ या प्राणी ब्रह्म से भिन्न नहीं रह जाता। छठे अध्याय के सत्ताईसवें श्लोक में जो योगी का ‘ब्रह्मभूत’ हो जाना तथा उनतीसवें श्लोक में ‘योगयुक्तातमा’ और सर्वत्र समदर्शी योगी का जो सब भूतों को आत्मा में स्थित देखना और सब भूतों में आत्मा को स्थित देखना बतलाया गया है, वह तो यहाँ ‘द्रक्ष्यसि आत्मनि’ से बतलायी हुई पहली स्थिति है और उस अध्याय के अट्ठाइसवें श्लोक में जो ब्रह्म-संस्पर्शरूप अत्यन्त सुख की प्राप्ति बतलायी गयी है, वह यहाँ ‘अथो मयि’ से बतलायी हुई उस पहली स्थिति की फलरूपा दूसरी स्थिति है। अठारहवें अध्याय में भी भगवान् ने ज्ञानयोग के वर्णन में चौवनवें श्लोक में योगी का ब्रह्मभूत होना बतलाया है और पचपनवें में ज्ञानरूप पराभक्ति के द्वारा उसका परमात्मा में प्रविष्ट होना बतलाया है। वही बात यहाँ दिखलायी गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6/29
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