श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
उत्तर- यहाँ ‘यत्’ पद पूर्व श्लोक में वर्णित ज्ञानी महापुरुषों द्वारा उपदिष्ट तत्त्वज्ञान का वाचक है और उस उपदेश के अनुसार परमात्मा के स्वरूप को भली-भाँति प्रत्यक्ष कर लेना ही उस ज्ञान को जानना है। तथा ‘फिर इस प्रकार से मोह को नहीं प्राप्त होगा’ इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस समय तुम जिस प्रकार मोह के वश होकर शोक में निमग्न हो रहे हो[1] महापुरुषों द्वारा उपदिष्ट ज्ञान के अनुसार परमात्मा का साक्षात् कर लेने के बाद पुनः तुम इस प्रकार के मोह को नहीं प्राप्त होओगे। क्योंकि जैसे रात्रि के समय सब जगह फैला हुआ अन्धकार सूर्योदय होने के बाद नहीं रह सकता, उसी प्रकार परमात्मा के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो जाने के बाद ‘मैं कौन हूँ? संसार क्या है? माया क्या है? ब्रह्म क्या है?’ इत्यादि कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। फलतः शरीर को आत्मा समझकर उससे सम्बन्ध रखने वाले प्राणियों में और पदार्थों में ममता करना, शरीर की उत्पत्ति-विनाश से आत्मा का जन्म-मरण समझकर उन सब के संयोग-वियोग में सुखी-दुःखी होना तथा अन्य किसी भी निमित्त से राग-द्वेष और हर्ष-शोक करना आदि मोह जनित विकार जरा भी नहीं हो सकते। लौकिक सूर्य तो उदय होकर अस्त भी होता है और उसके अस्त होने पर फिर अन्धकार हो जाता है; परंतु यह ज्ञान सूर्य एक बार उदय होने पर फिर कभी अस्त होता ही नहीं। परमात्मा का यह तत्त्व ज्ञान नित्य और अचल है, इसका कभी अभाव नहीं होता; इस कारण परमात्मा का तत्त्वज्ञान होने के बाद फिर मोह की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती। श्रुति कहती है- यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः। अर्थात् जिस समय तत्त्व ज्ञान को प्राप्त हुए पुरुष के लिये समस्त प्राणी आत्म स्वरूप ही हो जाते हैं, उस समय उस एकत्वदर्शी पुरुष को कौन-सा शोक और कौन-सा मोह हो सकता है? अर्थात् कुछ भी नहीं हो सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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