श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
उत्तर- कर्म करने वाले मनुष्य में ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार रहने के कारण उसके द्वारा किये हुए कर्म संस्कार रूप से उसके अन्तःकरण में संचित हो जाते हैं तथा उनके अनुसार उसे पुनर्जन्म की और सुख-दुःखों की प्राप्ति होती है- यही उसका उन कर्मों से लिप्त होना है। यहाँ भगवान् उपर्युक्त कथन से यह भाव दिखलाते हैं कि कर्मों के फलरूप किसी भी भोग में मेरी जरा भी स्पृहा नहीं है- अर्थात् मुझे किसी भी वस्तु की कुछ भी अपेक्षा नहीं है।[1] मेरे द्वारा जो कुछ भी कर्म होते हैं- सब ममता, आसक्ति फलेच्छा और कर्तापन के बिना केवल लोकहितार्थ ही होते हैं[2]; मेरा उनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं होता। इस कारण मेरे समस्त कर्म दिव्य हैं और इसीलिये वे मुझे लिप्त नहीं करते अर्थात् बन्धन में नहीं डालते। प्रश्न- उपर्युक्त प्रकार से भगवान् को तत्त्व से जानना क्या है और इस प्रकार से जानने वाला मनुष्य कर्मों से क्यों नहीं बँधता? उत्तर- उपर्युक्त वर्णन के अनुसार जो यह समझ लेना है कि विश्व-रचनादि समस्त कर्म करते हुए भी भगवान् वास्तव में अकर्ता ही हैं- उन कर्मों से उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है; उनके कर्मों में विषमता लेशमात्र भी नहीं है; कर्मफल में उनकी किंचिन्मात्र भी आसक्ति, ममता या कामना नहीं है, अतएव उनको वे कर्मबन्धन में नहीं डाल सकते- यही भगवान् को उपर्युक्त प्रकार से तत्त्वतः जानना है। और इस प्रकार भगवान् के कर्मों का रहस्य यथार्थरूप से समझ लेने वाले महात्मा के कर्म भी भगवान् की ही भाँति ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार के बिना केवल लोकसंग्रह के लिये ही होते हैं; इसीलिये वह भी कर्मों से नहीं बँधता। अतएव यह समझना चाहिये कि जिन मनुष्यों की कर्मों में और उनके फलों में कामना, ममता तथा आसक्ति है, वे वस्तुतः भगवान् के कर्मों की दिव्यता को जानते ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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