श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
उत्तर- भगवान् सृष्टि-रचना और अवतार-लीलादि जितने भी कर्म करते हैं, उनमें उनका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं है; केवल लोगों पर अनुग्रह करने के लिये ही वे मनुष्यादि अवतारों में नाना प्रकार के कर्म करते हैं।[1] भगवान् अपनी प्रकृति द्वारा समस्त कर्म करते हुए भी उन कर्मों के प्रति कर्तृव्यभाव न रहने के कारण वास्तव में न तो कुछ भी करते हैं और न उनके बन्धन मे पड़ते हैं। भगवान् की उन कर्मों के फल में किंचिन्मात्र भी स्पृहा नहीं होती।[2] भगवान् के द्वारा जो कुछ भी चेष्टा होती है, लोकहितार्थ ही होती है[3]; उनके प्रत्येक कर्म में लोगों का हित भरा रहता है। वे अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों के स्वामी होते हुए भी सर्वसाधारण के साथ अभिमान रहित दया और प्रेमपूर्ण समता का व्यवहार करते हैं[4]; जो कोई मनुष्य जिस प्रकार उनको भजता है, वे स्वयं उसे उसी प्रकार भजते हैं[5]; अपने अनन्य भक्तों का योगक्षेम भगवान् स्वयं चलाते हैं[6], उनको दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं[7] और भक्तिरूपी नौका पर बैठे हुए भक्तों का संसार समुद्र से शीघ्र ही उद्धार करने के लिये स्वयं उनके कर्णधार बन जाते हैं।[8] इस प्रकार भगवान् के समस्त कर्म आसक्ति, अहंकार और कामनादि दोषों से सर्वथा रहित निर्मल और शुद्ध तथा केवल लोगों का कल्याण करने एवं नीति, धर्म, शुद्ध प्रेम और भक्ति आदि का जगत् में प्रचार करने के लिये ही होते हैं; इन सब कर्मों को करते हुए भी भगवान् का वास्तव में उन कर्मों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, वे उनसे सर्वथा अतीत और अकर्ता हैं- इस बात को भली-भाँति समझ लेना, इसमें किंचिन्मात्र भी असम्भावना या विपरीत भावना न रहकर पूर्ण विश्वास हो जाना ही भगवान् के कर्मों को तत्त्व से दिव्य समझना है। इस प्रकार जान लेने पर उस जानने वाले के कर्म भी शुद्ध और अलौकिक हो जाते हैं- अर्थात् फिर वह भी सबके साथ दया, समता, धर्म, नीति, विनय और निष्काम प्रेम-भाव का बर्ताव करता है। प्रश्न- भगवान् के जन्म और कर्म दोनों की दिव्यता को समझ लेने से भगवान् की प्राप्ति होती है या इनमें से किसी एक की दिव्यता के ज्ञान से भी हो जाती है? उत्तर- दोनों में से किसी एक की दिव्यता जान लेने से ही भगवान् की प्राप्ति हो जाती है[9]; फिर दोनों की दिव्यता समझ लेने से हो जाती है; इसमें तो कहना ही क्या है। प्रश्न- इस प्रकार जानने वाला पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता, मुझे ही प्राप्त होता है- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- वह पुनर्जन्म को न प्राप्त होकर किस भाव को प्राप्त होता है; उसकी कैसी स्थिति होती है- इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिये भगवान् ने यह कहा है कि वह मुझको (भगवान् को) ही प्राप्त होता है और जो भगवान् को प्राप्त हो गया उसका पुनर्जन्म नहीं होता, यह सिद्धान्त ही है।[10] प्रश्न- यहाँ जन्म-कर्मों की दिव्यता जानने वाले को शरीर-त्याग के बाद भगवान् की प्राप्ति होने की बात कही गयी; तो क्या उसे इसी जन्म में भगवान् नहीं मिलते? उत्तर- इस जन्म में नहीं मिलते, ऐसी बात नहीं है। वह भगवान् के जन्म-कर्मों की दिव्यता को जिस समय पूर्णतया समझ लेता है, वस्तुतः उसी समय उसे भगवान् प्रत्यक्ष मिल जाते हैं; पर मरने के बाद उसका पुनर्जन्म नहीं होता, वह भगवान् के परमधाम को चला जाता है- यह विशेष भाव दिखलाने के लिये यहाँ यह बात कही गयी है कि वह शरीर-त्याग के बाद मुझे ही प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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