श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता: ।
उत्तर- आसक्ति का नाम राग है; किसी प्रकार के दुःख की सम्भावना से जो अन्तःकरण में घबड़ाहट होती है, उस विकार का नाम ‘भय’ है और अपना अपकार करने वाले पर तथा नीति-विरुद्ध या अपने मन के विरुद्ध या अपने मन के विरुद्ध बर्ताव करने वाले पर होने वाले उत्तेजनापूर्ण भाव का नाम ‘क्रोध’ है; इन तीनों विकारों का जिन पुरुषों में सर्वथा अभाव हो गया हो, उनका वाचक ‘वीतरागभयक्रोधाः’ पद है। भगवान् के दिव्य जन्म और कर्मों का तत्त्व समझ लेने वाले मनुष्य का भगवान् में अनन्य प्रेम हो जाता है, इसलिये भगवान् को छोड़कर उनकी किसी भी पदार्थ में जरा भी आसक्ति नहीं रहती; भगवान् तत्त्व समझ लेने से उनको सर्वत्र भगवान् का प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है और सर्वत्र भगवद्बुद्धि हो जाने के कारण वे सदा के लिये सर्वथा निर्भय हो जाते हैं; उनके साथ कोई कैसा भी बर्ताव क्यों न करे, उसे वे भगवान् की इच्छा से ही हुआ समझते हैं और संसार की समस्त घटनाओं को भगवान् की लीला समझते हैं- अतएव किसी भी निमित्त से उनके अन्तःकरण में क्रोध का विकार नहीं होता। इस प्रकार भगवान् के जन्म और कर्मों का तत्त्व जानने वाले भक्तों में भगवान् की दया से सब प्रकार के दुर्गुणों का सर्वथा अभाव होता है, यही भाव दिखलाने के लिये यहाँ ‘वीतरागभयक्रोधाः’ विशेषण का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- ‘मन्मयाः’ का क्या भाव है? उत्तर- भगवान् में अनन्य प्रेम हो जाने के कारण जिनको सर्वत्र एक भगवान्-ही-भगवान् दीखने लग जाते हैं, उनका वाचक ‘मन्मयाः’ पद है। इस विशेषण का प्रयोग करे यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि जो भगवान् के जन्म और कर्मों को दिव्य समझकर भगवान् को पहचान लेते हैं, उन ज्ञानी भक्तों का भगवान् में अनन्य प्रेम हो जाता है; अतः वे निरन्तर भगवान् में तन्मय हो जाते हैं और सर्वत्र भगवान् को ही देखते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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