तृतीय अध्याय
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा: ।। 24 ।।
इसलिये यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ ।।24।।
प्रश्न- यहाँ ‘यदि मैं कर्म न करूँ’ यह कहने की क्या आवश्यकता थी? क्योंकि पूर्व श्लोक में यह बात कह ही दी गयी थी कि ‘यदि मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ’ इसलिये इस पुनरुक्ति का क्या भाव है?
उत्तर- पूर्व श्लोक में ‘यदि मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ’ इस वाक्यांश से तो सावधानी के साथ विधिपूर्वक कर्म न करने से होने वाली हानि का निरूपण किया गया है और इस श्लोक में ‘यदि मैं कर्म न करूँ’ इस वाक्यांश से कर्मों के न करने से यानी उनका त्याग कर देने से होने वाली हानि बतलायी गयी है। इसलिये यह पुनरुक्ति नहीं है। दोनों श्लोकों में अलग-अलग दो बातें कही गयी हैं।
प्रश्न- यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ, इस वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यदि मैं कर्तव्य कर्मों का त्याग कर दूँ तो उन शास्त्रविहित कर्मों को व्यर्थ समझकर दूसरे लोग भी मेरी देखा-देखी उनका परित्याग कर देंगे और राग-द्वेष के वश होकर एवं प्रकृति के प्रवाह में पड़कर मनमाने नीच कर्म करने लगेंगे तथा एक-दूसरे का अनुकरण करके सब-के-सब स्वार्थपरायण, भ्रष्टाचारी उच्छृंखल हो जायँगे। ऐसा होने से वे सांसरिक भोगों में आसक्त होकर अपने-अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये एक-दूसरे की हानि की परवा न करके अन्यायपूर्वक शास्त्र विरुद्ध लोकनाशक पापकर्म करने लगेंगे। इसके फलस्वरूप उनका मनुष्य-जन्म भ्रष्ट हो जायगा और मरने के बाद उनको नीच योनियों में या नरकों में गिरना पड़ेगा।
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