श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- पूर्व श्लोक में भगवान् ने जो यह बात कही कि मेरे लिये सर्वथा कर्तव्य का अभाव होने पर भी मैं कर्म करता हूँ, इस पर यह जिज्ञासा होती है कि यदि आपके लिये कर्तव्य ही नहीं है तो फिर आप किसलिये कर्म करते हैं। अतः दो श्लोकों में भगवान् अपने कर्म का हेतु बतलाते हैं, इसी बात का द्योतक यहाँ ‘हि’ पद है। प्रश्न- ‘यदि’ और ‘जातु’- इन दोनों पदों के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- इनका प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मेरा अवतार धर्म की स्थापना के लिये होता है, इस कारण मैं कभी किसी भी काल में सावधानी के साथ सांगोपांग समस्त कर्मों का अनुष्ठान न करूँ यानि उनकी अवहेलना कर दूँ- यह सम्भव नहीं है; तो भी अपने कर्मों का हेतु समझाने के लिये यह बात कही जाती है कि ‘यदि मैं कदाचित् सावधानी के साथ कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी भारी हानि हो जाय; क्योंकि सम्पूर्ण जगत् का कर्ता, हर्ता और संचालक एवं मर्यादापुरुषोत्तम होकर भी यदि मैं असावधानी करने लगूँ तो सृष्टिचक्र में बड़ी भारी गड़बड़ी मच जाय।’ प्रश्न- मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि बहुत लोग तो मुझे बड़ा शक्तिशाली और श्रेष्ठ समझते हैं और बहुत-से मर्यादापुरुषोत्तम समझते हैं, इस कारण जिस कर्म को मैं जिस प्रकार करता हूँ, दूसरे लोग भी मेरी देखा-देखी उसे उसी प्रकार करते हैं अर्थात् मेरी नकल करते हैं। ऐसी स्थिति में यदि मैं कर्तव्य कर्मों की अवहेलना करने लगूँ, उनमें सावधानी के साथ विधिपूर्वक न बरतूँ तो लोग भी उसी प्रकार करने लग जायँ और ऐसा करके स्वार्थ और परमार्थ दानों से वंचित रह जायँ। अतएव लोगों को कर्म करने की रीति सिखलाने के लिये मैं समस्त कर्मों में स्वय बड़ी सावधानी के साथ विधिवत् बरतता हूँ, कभी कहीं भी जरा भी असावधानी नहीं करता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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