श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- इस लोक और परलोक के समस्त भोगों की सब प्रकार की कामनाओं का वाचक यहाँ ‘सर्वान्’ विशेषण के सहित ‘कामान्’ पद किनका वाचक है। इन सब प्रकार के भोगों की समस्त कामनाओं से सदा के लिये सर्वथा रहित हो जाना ही इनका त्याग कर देना है। प्रश्न- ‘निरहंकारः’, ‘निर्ममः’ और ‘निःस्पृहः’- इन तीनों पदों के अलग-अलग क्या भाव हैं तथा ऐसा होकर विचरना क्या है? उत्तर- मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सहित शरीर में जो साधारण अज्ञानी मनुष्यों का आत्माभिमान रहता है, जिसके कारण वे शरीर को ही अपना स्वरूप मानते हैं, अपने को शरीर से भिन्न नहीं समझते, अतएव शरीर के सुख-दुःख से ही सुखी-दुःखी होते हैं, उस देहाभिमान का नाम अहंकार है, उससे सर्वथा रहित हो जाना- यही ‘निरहंकार’ अर्थात् अहंकार रहित हो जाना है। मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सहित शरीर में, उसके साथ सम्बन्ध रखने वाले स्त्री, पुत्र, भाई और बन्धु-बान्धवों में तथा गृह, धन, ऐश्वर्य आदि पदार्थों में, अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मों में और उन कर्मों के फलरूप समस्त भोगों में साधारण मनुष्यों का ममत्व रहता है अर्थात् इन सबको व अपना समझते हैं; इसी भाव का नाम ‘ममता’ है और इससे सर्वथा रहित हो जाना ही ‘निर्मम’ अर्थात् ममता रहित हो जाना है। किसी अनुकूल वस्तु का अभाव होने पर मन में जो ऐसा भाव होता है कि अमुक वस्तु की आवश्यकता है, उसके बिना काम न चलेगा, इस अपेक्षा का नाम स्पृहा है और इस अपेक्षा से सर्वथा रहित हो जाना ही ‘निःस्पृह’ अर्थात् स्पृहा रहित होना है। स्पृहा कामना का सूक्ष्म स्वरूप है, इस कारण समस्त कामनाओं के त्याग से इसके त्याग को अलग बतलाया है। इस प्रकार अहंकार, ममता और स्पृहा से रहित होकर अपने वर्ण, आश्रम, प्रकृति और परिस्थिति के अनुसार केवल लोकसंग्रह के लिये इन्द्रियों के विषयों में विचरना अर्थात् देखना-सुनना, खाना-पीना, सोना-जागना आदि समस्त शास्त्रविहित चेष्टा करना ही समस्त कामनाओं का त्याग करके अहंकार, ममता और स्पृहा से रहित होकर विचरण करना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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