श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- इससे यह दिखलाया गया है कि जो उपर्युक्त प्रकार से आप्तकाम है, जिसको किसी भी भोग की जरा भी आवश्यकता नहीं है, जिसमें समस्त भोग प्रारब्ध के अनुसार अपने-आप आ-आकर विलीन हो जाते हैं और जो स्वयं किसी भोग की कामना नहीं करता, वही परमशान्ति को प्राप्त होता है, भोगों की कामना वाला मनुष्य कभी शान्ति को नहीं प्राप्त होता; क्योंकि उसका चित्त निरन्तर नाना प्रकार की भोग-कामनाओं से विक्षिप्त रहता है और जहाँ विक्षेप है, वहाँ शान्ति कैसे रह सकती है? वहाँ तो पद-पद पर चिन्ता, जलन और शोक ही निवास करते हैं। प्रश्न- अट्ठावनवें से लेकर इस श्लोक तक अर्जुन के तीसरे प्रश्न का ही उत्तर माना जाय तो क्या आपत्ति है; क्योंकि इस श्लोक में समुद्र की भाँति अचल रहने का उदाहरण दिया गया है? उत्तर- तीसरे प्रश्न का उत्तर यहाँ नहीं माना जा सकता, तीसरे प्रश्न का उत्तर अट्ठावनवें श्लोक से आरम्भ करके इकसठवें श्लोक में समाप्त कर दिया गया है; इसीलिये उसमें ‘आसीत्’ पद आया है। इसके बाद प्रसंगवश बासठवें और तिरसठवें श्लोकों में विषय-चिन्तन से आसक्ति आदि के द्वारा अधःपतन दिखलाकर चौंसठवें श्लोक से चौथे प्रश्न का उत्तर आरम्भ करते हैं। ‘चरन्’ पद से यह भेद स्पष्ट हो जाता है। इसी सिलसिले में नौका के दृष्टान्त से विषयासक्त अयुक्त पुरुष की विचरती हुई इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय के द्वारा बुद्धि के हरण किये जाने की बात आयी है। इसमें भी ‘चरताम्’ पद आया है। इसके अतिरिक्त इस श्लोक में ‘सर्वे कामाः प्रविशन्ति’ पदों से यह कहा गया है कि सम्पूर्ण भोग उसमें प्रवेश करते हैं। अक्रिय-अवस्था में तो प्रवेश के सब द्वार ही बंद हैं, क्योंकि वहाँ इन्द्रियाँ विषयों के संसर्ग से रहित हैं। यहाँ इन्द्रियों का व्यवहार है, इसीलिये भोगों का उसमें प्रवेश सम्भव है। उसकी परमात्मा के स्वरूप में ‘अचल’ स्थिति है, परंतु व्यवहार में वह अक्रिय नहीं है। अतएव यहाँ चौथे प्रश्न का उत्तर मानना ही युक्तियुक्त है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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