श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
उत्तर- कर्म करने और न करने में मनुष्य परतन्त्र है, इसलिये यह कहा गया है कि कोई भी प्राणी क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता।[4] मनुष्य का जो कर्म करने में अधिकार बतलाया गया है, उसका अभिप्राय भी उसको स्वतन्त्र बतलाना नहीं है, बल्कि परतन्त्र बतलाना ही है; क्योंकि उससे कर्मों के त्याग में अशक्यता सूचित की गयी है। अब रह गया यह प्रश्न कि मनुष्य किसके अधीन होकर कार्य करता है, तो इसके सम्बन्ध में यह बात है कि मनुष्य को प्रकृति के अधीन बतलाना; स्वभाव के अधीन बतलाना और ईश्वर के अधीन बतलाना-ये तीनों बातें एक ही हैं। क्योंकि स्वभाव और प्रकृति तो पर्यायवाची शब्द हैं और ईश्वर स्वयं निरपेक्षभाव से अर्थात् सर्वथा निर्लिप्त रहते हुए ही उन जीवों की प्रकृति के अनुरूप् अपनी मायाशक्ति के द्वारा उनको कर्मों में नियुक्त करते हैं, इसलिये ईश्वर के अधीन बतलाना प्रकृति के ही अधीन बतलाना है। दूसरे पक्ष में ईश्वर ही प्रकृति के स्वामी और प्रेरक हैं, इस कारण प्रकृति के अधीन बतलाना भी ईश्वर के ही अधीन बतलाना है। रही यह बात कि यदि मनुष्य सर्वथा ही परतन्त्र है तो फिर उसके उद्धार होने का क्या उपाय है और उसके लिये कर्तव्य-अकर्तव्य का विधान करने वाले शास्त्रों की क्या आवश्यकता है? इसका उत्तर यह है कि कर्तव्य-अकर्तव्य का विधान करने वाले शास्त्र मनुष्य को उसके स्वभाविक कर्मों से हटाने के लिये या उससे स्वभाव विरुद्ध कर्म करवाने के लिये नहीं है, किंतु उन कर्मों के करने में जो राग-द्वेष के वश में होकर वह अन्याय कर लेता है- उस अन्याय का त्याग कराकर उसे न्यायपूर्वक कर्तव्य कर्मों में लगाने के लिये है। इसलिये मनुष्य कर्म करने में स्वभाव के परतन्त्र होते हुए भी उस स्वभाव का सुधार करने में परतन्त्र नहीं है। अतएव यदि वह शास्त्र और महापुरुषों के उपदेश से सचेत होकर प्रकृति के प्रेरक सर्वशक्तिमान परमेश्वर की शरण ग्रहण कर ले और राग-द्वेषादि विकारों का त्याग करके शास्त्रविधि के अनुसार न्यायपूर्वक अपने स्वाभाविक कर्मों को निष्कामभाव से करता हुआ अपना जीवन बिताने लगे तो उसका उद्धार हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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