श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
उत्तर- जिन सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, सबके प्रेरक, सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापी, परमेश्वर को पूर्वश्लोक में समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित बतलाया गया है, उन्हीं का वाचक यहाँ ‘तम्’ पद है और अपने मन, बुद्धि, इन्द्रियों को, प्राणों को और समस्त धन, जन आदि को उनके समर्पण करके उन्हीं पर निर्भर हो जाना सब प्रकार से उस परमेश्वर की शरण में चले जाना है। अर्थात् भगवान के गुण, प्रभाव, तत्त्व और स्वरूप का श्रद्धापूर्वक निश्चय करके भगवान को ही परम प्राप्य, परम गति, परम आश्रय और सर्वस्व समझना तथा उनको अपना स्वामी, भर्ता, प्रेरक, रक्षक और परम हितैषी समझकर सब प्रकार से उन पर निर्भर और निर्भय हो जाना एवं सब कुछ भगवान का समझकर और भगवान को सर्वव्यापी जानकर समस्त कर्मों में ममता, अभिमान, आसक्ति और कामना का त्याग करके भगवान की आज्ञानुसार अपने कर्मों द्वारा समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित परमेश्वर की सेवा करना; जो कुछ भी दुःख-सुख के भोग प्राप्त हों, उनको भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार समझकर सदा ही सन्तुष्ट रहना; भगवान के किसी भी विधान में कभी किंचिन्मात्र भी असन्तुष्ट न होना; मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग करके भगवान के सिवा किसी भी सांसारिक वस्तु में ममता और आसक्ति न रखना; अतिशय श्रद्धा और अनन्य प्रेमपूर्वक भगवान के नाम, गुण, प्रभाव, लीला, तत्त्व और स्वरूप् का नित्य-निरन्तर श्रवण, चिंतन और कथन करते रहना- ये सभी भाव तथा क्रियाएँ सब प्रकार से परमेश्वर की शरण ग्रहण करने के अन्तर्गत हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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