श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
उत्तर- पहले भगवान के द्वारा युद्ध करने की आज्ञा दी जाने पर[1] जो अर्जुन ने भगवान से यह कहा था कि ‘न योत्स्ये’-मैं युद्ध नहीं करूँगा[2], उसी बात को स्मरण कराते हुए भगवान ने यहाँ उपर्युक्त वाक्य कहा है। अभिप्राय यह है कि तुम जो यह मानते हो कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’, तुम्हारा यह मानना केवल अहंकार मात्र है; युद्ध न करना तुम्हारे हाथ की बात नहीं है। अतएव इस प्रकार अज्ञानजनित अहंकार के वशीभूत होकर अपने को पण्डित, समर्थ और स्वतन्त्र समझना एवं उसके बल पर यह निश्चय कर लेना कि अमुक कार्य मैं इस प्रकार सिद्ध कर लूँगा और अमुक कार्य नहीं करूँगा, बहुत ही अनुचित है। प्रश्न- तेरा यह निश्चय मिथ्या है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से भगवान ने यह दिखलाया है कि तुम्हारी यह मान्यता टिक न सकेगी; अर्थात् तुम बिना युद्ध किये रह न सकोगे; क्योंकि तुम स्वतन्त्र नहीं हो, प्रकृति के अधीन हो। प्रश्न- यहाँ ‘प्रकृतिः’ पद किसका वाचक है और तेरी प्रकृति तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगी, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- जन्म-जन्मान्तर में किये हुए कर्मों के संस्कार जो वर्तमान जन्म में स्वभावरूप से प्रादुर्भूत हुए हैं, उनके समुदाय का वाचक यहाँ ‘प्रकृतिः’ पद है; इसी को स्वभाव भी कहते हैं। इस स्वभाव के अनुसार ही मनुष्य का भिन्न-भिन्न कर्मों के अधिकारी समुदाय में जन्म होता है और उस स्वभाव के अनुसार ही भिन्न-भिन्न मनुष्यों की भिन्न-भिन्न कर्मों में प्रवृत्ति हुआ करती है। अतएव यहाँ उपर्युक्त वाक्य से भगवान ने यह दिखलाया है कि जिस स्वभाव के कारण तुम्हारा क्षत्रिय कुल में जन्म हुआ है, वह स्वभाव तुम्हारी इच्छा न रहने पर भी तुमको जबर्दस्ती युद्ध में प्रवृत्त करा देगा। योग्यता प्राप्त होने पर वीरतार्पूवक युद्ध करना, युद्ध से डरना या भागना नहीं-यह तुम्हारा सहज कर्म है; अतएव तुम इसे किये बिना रह नहीं सकोगे, तुमको युद्ध अवश्य करना पड़ेगा। यहाँ क्षत्रिय के नाते अर्जुन को युद्ध के विषय में जो बात कही है, वही बात अन्य वर्ण वालों को अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों के विषय में समझ लेनी चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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