श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय स्वभावजेन कौन्तेय निबद्ध: स्वेन कर्मणा ।
उत्तर- अर्जुन की माता कुन्ती बड़ी वीर महिला थी, उसने स्वयं श्रीकृष्ण के हाथ सँदेशा भेजते समय पाण्डवों को युद्ध के लिये उत्साहित किया था। अतः भगवान यहाँ अर्जुन को ‘कौन्तैय’ नाम से सम्बोधित करके यह भाव दिखलाते हैं कि तुम वीर माता के पुत्र हो, स्वयं भी शूरवीर हो, इसलिये तुमसे युद्ध किये बिना नहीं रहा जायगा। प्रश्न- जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान ने यह दिखलाया है कि तुम क्षत्रिय हो, युद्ध करना तुम्हारा स्वाभाविक धर्म है; अतएव वह तुम्हारे लिये पापकर्म नहीं है। इसलिये उसे न करने की इच्छा करना किसी प्रकार भी उचित नहीं है। इस पर भी जो तुम न्याय से प्राप्त युद्धरूप सहजकर्म को करना नहीं चाहते हो, इसमें केवलमात्र तुम्हारा अविवेक ही हेतु है; दूसरा कोई युक्तियुक्त कारण नहीं है। प्रश्न- उसको भी तू अपने स्वाभाविक कर्मों से बँधा हुआ परवश होकर करेगा, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि युद्ध करना तुम्हारा स्वाभाविक कर्म है- इस कारण तुम उससे बँधे हुए हो अर्थात् उससे तुम्हारा घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसलिये तुम्हारी इच्छा न रहने पर भी वह तुमको बलात् अपनी ओर आकर्षित कर लेगा और तुम्हें अपने स्वभाव के वश में होकर उसे करना ही पड़ेगा। इसलिये यदि मेरी आज्ञा के अनुसार अर्थात् सत्तावन वें श्लोक में बतलायी हुई विधि के अनुसार उसे करोगे तो कर्मबन्धन से मुक्त होकर मुझे प्राप्त हो जाओगे, नहीं तो राग-द्वेष के जाल में फँसकर जन्म-मृत्युरूप संसार सागर में गोते लगाते रहोगे। जिस प्रकार नदी के प्रवाह में बहता हुआ मनुष्य उस प्रवाह का सामना करके नदी के पार नहीं जा सकता वरं अपना नाश कर लेता है; और जो किसी नौका या काठ का आश्रय लेकर या तैरने की कला से जल के ऊपर तैरता रहकर उस प्रवाह के अनुकूल चलता है, वह किनारे लगकर उसको पार कर जाता है; उसी प्रकार प्रकृति के प्रवाह में पड़ा हुआ जो मनुष्य प्रकृति का सामना करता है, यानी हठ से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर देता है, वह प्रकृति से पार नहीं हो सकता वरं उसमें अधिक फँसता जाता है; और जो परमेश्वर या कर्मयोग का आश्रय लेकर या ज्ञानमार्ग के अनुसार अपने को प्रकृति से ऊपर उठाकर प्रकृति के अनुकूल कर्म करता रहता है, वह कर्मबन्धन से मुक्त होकर प्रकृति के पार चला जाता है अर्थात् परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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