श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तप: ।
उत्तर- जिस तप का वर्णन किसी अध्याय के पाँचवे और छठे श्लोकों में किया गया हैं; जो आशास्त्रीय, मनःकाल्पित, घोर और स्वभाव से ही तामस है; जिसमें दम्भ की प्रेरणा से या अज्ञान से पैरों को पेड़ की डाली में बाँधकर सिर नीचा करके लटकना, लोहे के काँटों पर बैठना तथा इसी प्रकार की अन्यान्य घोर क्रियाएँ करके बुरी भावना से कष्ट सहन किया जाता है।-यहाँ ‘तामस तप’ के नाम से उसी का निर्देश है, यही भाव दिखलाने के लिये ‘तप’ के साथ ‘यत्’ पद का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- ‘मूढग्राह’ किसको कहते हैं और उसके द्वारा तप करना क्या है? उत्तर- तप के वास्तविक लक्षणों को न समझकर जिस किसी भी क्रिया को तप मानकर उसे करने का जो हठ या दुराग्रह है, उसे ‘मूढग्राह’ कहते हैं। और ऐसे आग्रह से किसी शारिरिक, वाचिक या मानसिक कष्ट सहन करने की तामसी क्रिया को तप समझकर करना ही मूढ़तापूर्ण आग्रह से तप करना है। प्रश्न- आत्मसम्बन्धी पीड़ा के सहित तप करना क्या है? उत्तर- यहाँ आत्मा शब्द मन, वाणी और शरीर- इन सभी का वाचक है और इन सबके सम्बन्ध रखने वाला जो कष्ट है, उसी को ‘आत्मसम्बन्धी पीड़ा’ कहते हैं, अतएव मन वाणी और शरीर इन सबको या इनमें से किसी एक को अनुचित कष्ट पहुँचाकर जो अशास्त्रीय तप किया जाता है, उसी को आत्मसम्बन्धी पीड़ा के सहित तप करना कहते हैं। प्रश्न- दूसरों का अनिष्ट करने के लिये तप करना क्या है? उत्तर- दूसरों की सम्पत्ति का हरण करने, उसका नाश करने, उसके वंश का उच्छेद करने अथवा उनका किसी प्रकार कुछ भी अनिष्ट करने के लिये जो अपने मन, वाणी और शरीर को ताप पहुँचाना है- वही दूसरों का अनिष्ट करने के लिये तप करना है। प्रश्न- यहाँ ‘वा’ अव्यय के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- ‘वा’ अव्यय का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जो तप उपर्युक्त लक्षणों में से किसी एक लक्षण से भी युक्त है, वह भी तामस ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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