श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् ।
उत्तर- यहाँ ‘तप;’ के साथ ‘यत्’ पद का प्रयोग करके भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि शास्त्रों में जितने भी व्रत, उपवास और संयम आदि तपों के वर्णन हैं- वे सभी तप आदि सत्कार, मान और पूजा आदि के लिये किये जाते हैं, तो राजस तप की श्रेणी में आ जाते हैं। प्रश्न- सत्कार, मान और पूजा के लिये ‘तप’ करना क्या है? तथा ‘च’ और ‘एव’ के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- तप की प्रसिद्धि से जो इस प्रकार जगत् में बड़ाई होती है कि यह मनुष्य बड़ा भारी तपस्वी है, इसकी बराबरी कौन कर सकता है, यह बड़ा श्रेष्ठ है आदि- उसका नाम ‘सत्कार’ है। किसी को तपस्वी समझकर उसका स्वागत करना, उसके सामने खड़े हो जाना, प्रणाम करना, मानपत्र देना या अन्य किसी क्रिया से उसका आदर करना ‘मान’ है। तथा उसकी आरती उतारना, पैर धोना, पत्र-पुष्पादि षोडशेपचारसे पूजा करना, उसकी आज्ञा का पालन करना- इन सबका नाम ‘पूजा’ है। इन सबके लिये जो लोकिक या शास्त्रीय तप का आचरण किया जाता है- वही सत्कार मान बौर पूजा के लिये तप करना है तथा ‘च’ और ‘एव’ का प्रयोग करके यह भाव दिखाया है कि इसके सिवा अन्य किसी स्वार्थ की सिद्धि के लिये किये जाने वाला तप भी राजस है। प्रश्न- दम्भ से ‘तप’ करना क्या है? उत्तर- तप में वस्तुतः आस्था न होने पर भी लोगों को धोखा देकर किसी प्रकार का स्वार्थ सिद्ध करने के लिये तपस्वी का-सा स्वाँग रचकर जो किसी लोकिक या शास्त्रिय तप का बाहर से दिखाने भर के लिये आचरण किया जाता है, उसे दिम्भ से तप करना कहते हैं। प्रश्न- स्वार्थसिद्धि के लिये किये जाने वाला जो तप दम्भपूर्वक किया जाता है, वही ‘राजस’ माना जाता है या केवल स्वार्थ के सम्बन्ध से ही राजस हो जाता है? उत्तर- केवल स्वार्थ के सम्बन्ध से ही राजस हो जाता है; फिर दम्भ भी साथ में हो, उसके लिये तो कहना ही क्या है। प्रश्न- राजस तप को ‘अध्रुव’ और ‘चल’ कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जिस फल की प्राप्ती के लिए उस फल का अनुष्ठान किया जाता है, उसका प्राप्त होना या न होना निश्चित नहीं है; इसलिये उसे ‘अध्रुव’ कहा है और जो कुछ फल मिलता है, वह भी सदा नहीं रहता, उसका निश्चय ही नाश हो जाता है- इसलिये उसे ‘चल’ कहा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज