श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्थ अध्याय संबंध- यज्ञों का वर्णन सुनकर ऐसी जिज्ञासा होती है कि उन यज्ञों में से कौन सा यज्ञ श्रेष्ठ है? इसका समाधान भगवान आगे के श्लोक में करते हैं। श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप । व्याख्या- ‘श्रेयान्द्रव्यमयाद्याज्ज्ञानयज्ञः परंतप’- जिन यज्ञों में द्रव्यों[2] तथा कर्मों की आवश्यकता होती है, वे सब यज्ञ ‘द्रव्यमय’ होते हैं। ‘द्रव्य’ शब्द के साथ ‘मय’ प्रत्यय प्रचुरता के अर्थ में है। जैसे मिट्टी की प्रधानता वाला पात्र ‘मृन्मय’ कहलाता है, ऐसे ही द्रव्य की प्रधानता वाला यज्ञ ‘द्रव्यमय’ कहलाता है। ऐसे द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकि ज्ञानयज्ञ में द्रव्य और कर्म की आवश्यकता नहीं होती। सभी यज्ञों को भगवान ने कर्मजन्य कहा है।[3] यहाँ भगवान कहते हैं कि संपूर्ण कर्म ज्ञानयज्ञ में परिसमाप्त हो जाते हैं अर्थात ज्ञानयज्ञ कर्मजन्य नहीं है, प्रत्युत विवेक विचारजन्य है। अतः यहाँ जिस ज्ञानयज्ञ की बात आयी है, वह पूर्व वर्णित बारह यज्ञों के अतंर्गत आये ज्ञानयज्ञ[4] का वाचक नहीं है, प्रत्युत आगे के[5] श्लोक में वर्णित ज्ञान प्राप्त करने की प्रचलित प्रक्रिया का वाचक है। पूर्ववर्णित बारह यज्ञों का वाचक यहाँ ‘द्रव्यमय यज्ञ’ है। द्रव्यमय यज्ञ समाप्त करके ही ज्ञानयज्ञ किया जाता है। अगर सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाय तो ज्ञानयज्ञ भी क्रियाजन्य ही है, परंतु इसमें विवेक विचार की प्रधानता रहती है। ‘सर्वं कर्मखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते’- ‘सर्वम्’ और ‘अखिलम्’- दोनों शब्द पर्यायवाची हैं और उनका अर्थ ‘संपूर्ण’ होता है। इसलिये यहाँ ‘सर्वम् कर्म’ का अर्थ संपूर्ण कर्म[6] और ‘अखिलम्’ का अर्थ संपूर्ण द्रव्य[7] लेना ही ठीक मालूम देता है। जब तक मनुष्य अपने लिये कर्म करता है, तब तक उसका संबंध क्रियाओं और पदार्थों से बना रहता है। जब तक क्रियाओं और पदार्थों से संबंध रहता है, तभी तक अंतःकरण में अशुद्धि रहती है, इसलिये अपने लिये कर्म न करने से ही अंतःकरण शुद्ध होता है। अंतःकरण में तीन दोष रहते हैं- मल[8], विक्षेप[9] और आवरण[10]। अपने लिये कोई भी कर्म न करने से अर्थात संसार मात्र की सेवा के लिये ही कर्म करने से जब साधक के अंतःकरण में स्थित मल और विक्षेप- दोनों दोष मिट जाते हैं, तब वह ज्ञान प्राप्ति के द्वारा आवरण दोष को मिटाने के लिये कर्मों का स्वरूप से त्याग करके गुरु के पास जाता है। उस समय वह कर्मों और पदार्थों से ऊँचा उठ जाता है अर्थात कर्म और पदार्थ उसके लक्ष्य नहीं रहते, प्रत्युत एक चिन्मय तत्त्व ही उसका लक्ष्य रहता है। यही संपूर्ण कर्मों और पदार्थों का तत्त्वज्ञान में समाप्त होना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तत्त्वज्ञान
- ↑ पदार्थों
- ↑ 4।32
- ↑ 4।28
- ↑ चौंतीसवें
- ↑ मात्र कर्म
- ↑ मात्र पदार्थ
- ↑ संचित पाप
- ↑ चित्त की चञ्चलता
- ↑ अज्ञान
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज