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प्रथम अध्याय
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
सेनयोरुभोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।। 21 ।।
यावदेतान्निरीक्षऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ।। 22 ।।
अर्थ- अर्जुन बोले- हे अच्युत ! दोनों सेनाओं के मध्य में मेरे रथ को आप तब तक खड़ा कीजिये, जब तक मैं युद्धक्षेत्र में खड़े हुये इन युद्ध की इच्छा वालों को देख न लूँ कि इस युद्धरूप उद्योग में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है।
व्याख्या- ‘अच्युत सेनायोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय’- दोनों सेनाएँ जहाँ युद्ध करने के लिये एक-दूसरे के सामने खड़ी थी, वहाँ उन दोनों सेनाओं में इतनी दूरी थी कि येक सेना दूसरी सेना पर बाण आदि मार सके। उन दोनों सेनाओं का मध्यभाग दो तरफ से मध्य था-
1. सेनाएँ जितनी चौड़ी खड़ी थीं, उस चौड़ाई का मध्यभाग और
2. दोनों सेनाओं का मध्यभाग, जहाँ से कौरव सेना जितनी दूरी पर खड़ी थी, उतनी ही दूरी पर पांडव सेना खड़ी थी। ऐसे मध्य भाग में खड़ा करने के लिये अर्जुन भगवान से कहते हैं, जिससे दोनों सेनाओं को आसानी से देखा जा सके।
‘सेनयोरुभयोर्मध्ये’ पद गीता में तीन बार आया है- यहाँ[1], इसी अध्याय के चौबीसवें श्लोक में और दूसरे अध्याय में दसवें श्लोक में। तीन बार आने का तात्पर्य है कि पहले अर्जुन शूरवीरता के साथ अपने रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करने की आज्ञा देते हैं[2], फिर भगवान दोनों सेनाओं के बीच में रथ को खड़ा करके कुरुवशियों को देखने के लिये कहते हैं।[3] और अंत में दोनों सेनाओं के बीच में ही विषादमग्र अर्जुन को गीता का उपदेश देते हैं।[4] इस प्रकार पहले अर्जुन में शूरवीरता थी, बीच में कुटुम्बियों को देखने से मोह के कारण उनकी युद्ध से उपरति हो गयी और अंत में उनको भगवान गीता का महान उपदेश प्राप्त हुआ, जिससे उनका मोह दूर हो गया। इससे यह भाव निकलता है कि मनुष्य जहाँ-कहीं और जिस-किसी परिस्थिति में स्थित है, वहीं रहकर वह प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करके निष्काम हो सकता है और वहीं उसको परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। कारण कि परमात्मा संपूर्ण परिस्थितियों में सदा येक रूप से रहते हैं।
‘यावदेतान्निरीक्षेऽहं.......रणसमुद्यमे’- दोनों सेनाओं के बीच में रथ कब तक खड़ा करें? इस पर अर्जुन कहते हैं कि युद्ध की इच्छा को लेकर कौरव-सेना में आये हुये सेना सहित जितने भी राजालोग खड़े हैं, उन सबको जब तक मैं देख न लूँ, तब तक आप रथ को वहीं खड़ा रखिये। इस युद्ध के उद्योग में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना है? उनमें कौन मेरे समान बलवाले हैं? कौन मेरे से कम बलवाले हैं? और कौन मेरे से अधिक बलवाले हैं? उन सबको मैं जरा देख लूँ।
यहाँ ‘योद्धुकामान्’ पद से अर्जुन कह रहे हैं कि हमने तो संधि की बात ही सोची थी, पर उन्होंने संधि की बात स्वीकार नहीं की; क्योंकि उनके मन में युद्ध करने की ज्यादा इच्छा है। अतः उनको मैं देखूँ कि कितने बल को लेकर वे युद्ध करने की इच्छा रखते हैं।
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