श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
श्रीभगवानुवाच ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । अर्थ- श्रीभगवान बोले- ऊपर की ओर मूलवाले तथा नीचे की ओर शाखा वाले जिस संसार रूप अश्वत्थवृक्ष को अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसारवृक्ष को जो जानता है, वह संपूर्ण वेदों को जानने वाला है। व्याख्या- ‘ऊर्ध्वमूलमधःशाखम्’- [तेरहवें अध्याय के आरंभ के दो श्लोकों की तरह यहाँ पंद्रहवें अध्याय के पहले श्लोक में भी भगवान ने अध्याय के संपूर्ण विषयों का दिग्दर्शन कराया है और ‘ऊर्ध्वमूलम्’ पद से परमात्मा का, ‘अधःशाखम्’ पद से संपूर्ण जीवों की प्रतिनिधि ब्रह्मा जी का तथा ‘अश्वत्थम्’ पद से संसार का संकेत करके (संसार रूप अश्वत्थवृक्ष के मूल) सर्वशक्तिमान परमात्मा को यथार्थरूप से जाने वाले को ‘वेदवित्’ कहा है।] साधारणतया वृक्षों का मूल नीचे और शाखाएँ ऊपर की ओर होती हैं; परंतु यह संसारवृक्ष ऐसा विचित्र वृक्ष है कि इसका मूल ऊपर तथा शाखाएँ नीचे की ओर हैं। जहाँ जाने पर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आता, ऐसा भगवान का परमधाम ही संपूर्ण भौतिक संसार से ऊपर (सर्वोपरि) है। संसारवृक्ष की प्रधान शाखा (तना) ब्रह्मा जी हैं; क्योंकि संसारवृक्ष की उत्पत्ति के समय सबसे पहले ब्रह्मा जी का उद्भव होता है। इस कारण ब्रह्मा जी ही इसकी प्रधान शाखा है। ब्रह्मलोक भगवद्धाम की अपेक्षा नीचे है। स्थान, गुण, पद, आयु आदि सभी दृष्टियों से परमधाम की अपेक्षा निम्न श्रेणी में होने का कारण ही इन्हें ‘अधः’ (नीचे की ओर) कहा गया है।[2] यह संसार रूपी वृक्ष ऊपर की ओर मूल वाला है। वृक्ष में मूल ही प्रधान होता है। ऐसे ही इस संसार रूपी वृक्ष में परमात्मा ही प्रधान हैं। उनसे ब्रह्माजी प्रकट होते हैं, जिनका वर्णन ‘अधःशाखम्’ पद से हुआ है। सबके मूल प्रकाशक और आश्रय परमात्मा ही हैं। देश, काल, भाव, सिद्धांत, गुण, रूप, विद्या आदि सभी दृष्टियों से परमात्मा ही सबसे श्रेष्ठ हैं। उनसे ऊपर अथवा श्रेष्ठ की तो बात ही क्या है, उनके समान भी दूसरा कोई नहीं है[3][4]। संसारवृक्ष के मूल सर्वोपरि परमात्मा हैं। जैसे ‘मूल’ वृक्ष का आधार होता है, ऐसे ही ‘परमात्मा’ संपूर्ण जगत के आधार हैं। इसीलिए उस वृक्ष को ‘उर्ध्वमूलम्’ कहा गया है। ‘मूल’ शब्द का का वाचक है। इस संसार वृक्ष की उत्पत्ति और इसका विस्तार परमात्मा से ही हुआ है। वे परमात्मा नित्य, अनन्त और सबके आधार हैं तथा सगुण- रूप से सबसे ऊपर नित्य-धाम में निवास करते हैं, इसलिए वे ‘ऊर्ध्व’ नाम से कहे जाते हैं। यह संसारवृक्ष उन्हीं परमात्मा से उत्पन्न हुआ है, इसलिए इसको ऊपर की ओर मूल वाला (ऊर्ध्वमूल) कहते हैं। वृक्ष के मूल में ही तने, शाखाएँ, कोंपलें निकलती हैं। इसी प्रकार परमात्मा से ही संपूर्ण जगत उत्पन्न होता है, उन्हीं से विस्तृत होता है और उन्हीं में स्थित रहता है। उन्हीं से शक्ति पाकर संपूर्ण जगत चेष्टा करता है।[5] ऐसे सर्वोपरि परमात्मा की शरण लेने से मनुष्य सदा के लिए कृतार्थ हो जाता है। (शरण लेने की बात आगे चौथे श्लोक में ‘तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये’ पदों में कही गयी है)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।
तस्मिल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन। एतद्वैतत् ।। (कठोपनिषद् 2।3।1) - ↑ यहाँ ‘अधःशाखम्’ पद में ब्रह्मा जी से लेकर कीट-पर्यन्त सभी जीवों का समावेश है।
- ↑ ‘न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।’ (श्वेताश्वतरोपनिषद 6।8)
उस (परमात्मा) से बड़ा और उसके समान भी दूसरा नहीं दीखता। - ↑ गीता 11:43
- ↑ जैसे गीता में कहा है- ‘अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा’ (गीता 7:6), ‘प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्’ (गीता 9:18), ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते’ (गीता 10:8); ‘यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी’ (गीता 15:4) और ‘यतः प्रवृत्तिर्भूतानाम्’ (गीता 18:46)।
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