श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
‘सर्वारम्भपरित्यागी’- वह महापुरुष संपूर्ण कर्मों के आरंभ का त्यागी होता है। तात्पर्य है कि धन-संपत्ति के संग्रह और भोगों के लिए वह किसी तरह का कोई नया कर्म आरंभ नहीं करता। स्वतः प्राप्त परिस्थिति के अनुसार ही उसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है अर्थात क्रियाओं में उसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है अर्थात क्रियाओं में उसकी प्रवृत्ति कामना, वासना, ममता से रहित होती है और निवृत्ति भी मान-बड़ाई आदि की इच्छा से रहित होती है। ‘गुणातीतः स उच्यते’- यहाँ ‘उच्यते’ पद से यही ध्वनि निकलती है कि उस महापुरुष की ‘गुणातीत’ संज्ञा नहीं है; किंतु उसके कहे जाने वाले शरीर, अंतःकरण के लक्षणों को लेकर ही उसको गुणातीत कहा जाता है। वास्तव में देखा जाए तो जो गुणातीत है, उसके लक्षण नहीं हो सकते। लक्षण तो गुणों से ही होते हैं; अतः उसके लक्षण होते हैं, वह गुणातीत कैसे हो सकता है? परंतु अर्जुन ने गुणातीत के ही लक्षण पूछे हैं और भगवान ने भी गुणातीत के ही लक्षण कहे हैं। इसका तात्पर्य यह है कि लोग पहले उस गुणातीत की जिस शरीर और अंतःकरण में स्थिति मानते थे, उसी शरीर और अंतःकरण के लक्षणों को लेकर वे उसमें आरोप करते हैं कि यह गुणातीत मनुष्य है। अतःये लक्षण गुणातीत मनुष्य को पहचानने के संकेतमात्र हैं। प्रकृति के कार्य गुण हैं और गुणों के कार्य शरीर-इंद्रियाँ-मन-बुद्धि हैं। अतः मन-बुद्धि आदि के द्वारा अपने कारण गुणों का भी पूरा वर्णन नहीं हो सकता, फिर गुणों के भी कारण प्रकृति का वर्णन हो ही कैसे सकता है? जो प्रकृति से भी सर्वथा अतीत (गुणातीत) है, उसका वर्णन करना तो उन मन-बुद्धि आदि के द्वारा संभव ही नहीं है। वास्तव में गुणातीत के ये लक्षण स्वरूप में तो होते ही नहीं; किंतु अंतःकरण में मानी हुई अहंता-ममता के नष्ट हो जाने पर उसके कहे जाने वाले अंतःकरण के माध्यम से ही ये लक्षण-गुणातीत के लक्षण कहे जाते हैं। यहाँ भगवान ने सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय, निन्दा-स्तुति और मान-अपमान- ये आठ परस्पर विरुद्ध नाम लिये हैं, जिनमें साधारण आदमियों की तो विषमता हो ही जाती है, साधकों की भी कभी-कभी विषमता हो जाती है। |
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