श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
मनुष्य को नींद से जगने पर सबसे पहले ‘अहम्’ अर्थात ‘मै हूँ’- इस वृत्ति का ज्ञान होता है। फिर मैं अमुक शरीर, नाम, जाति, वर्ण, आश्रम आदि का हूँ- ऐसा अभिमान होता है। यह एक क्रम है। इसी प्रकार पारमार्थिक मार्ग में भी अहंकार के नाश का एक क्रम है। सबसे पहले स्थूल-शरीर से संबंधि धनादि पदार्थों का अभिमान मिटता है। फिर कर्मेन्द्रियों के संबंध से रहने वाले कर्तृत्वाभिमान का नाश होता है। उसके बाद बुद्धि की प्रधानता से रहने वाला ज्ञातापन का अहंकार मिटता है। अंत में ‘अहम्’ वृत्ति की प्रधानता से जो साक्षीपन का अहंकार है, वह भी मिट जाता है। तब सर्वत्र परिपूर्ण सच्चिदानन्दघन स्वरूप स्वतः रह जाता है। उपाय- (1) अपने में श्रेष्ठता की भावना से ही अभिमान पैदा होता है। अभिमान तभी होता है, जब मनुष्य दूसरों की तरफ देखकर यह सोचता है कि वे मेरी अपेक्षा तुच्छ है। जैसे, गाँवभर में एक ही लखपति हो तो दूसरों को देखकर उसको लखपति होने का अभिमान होता है। परंतु अगर दूसरे सभी करोड़पति हों तो उसको अपने लखपति होने का अभिमान नहीं होता। अतः अभिमानरूप दोष को मिटाने के लिए साधक को चाहिए कि वह दूसरों की कमी की तरफ कभी न देखे, प्रत्युत अपनी कमियों को देखकर उनको दूर करे।[1] (2) एक ही आत्मा जैसे इस शरीर में व्याप्त है, ऐसे ही वह अन्य शरीरों में भी व्याप्त है- ‘सर्वगतः’।[2] परंतु मनुष्य अज्ञान से सर्वव्यापी आत्मा को एक अपने शरीर में ही सीमित मानकर शरीर को ‘मैं’ मान लेता है। जैसे मनुष्य बैंक में रखे हुए बहुत से रुपयों में से केवल अपने द्वारा जमा किए हुए कुछ रुपयों में ही ममता करके, उनके साथ अपना संबंध मानकर अपने को धनी मान लेता है, ऐसे ही एक शरीर में ‘मैं शरीर हूँ’- ऐसी अहंता करके वह काल से संबंध मानकर ‘मैं इस समय में हूँ’, देश से संबंध मानकर ‘मैं यहाँ हूँ’, बुद्धि से संबंध मानकर ‘मैं समझदार हूँ’, वाणी से संबंध मानकर ‘मैं वक्ता हूँ’ आदि अहंकार कर लेता है। इस प्रकार के संबंध न मानना ही अहंकार रहित होने का उपाय है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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