श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
उपर्युक्त तीनों शरीरों को ‘शरीर’ कहने का तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण नाश होता रहता है।[1] इनको कोश कहने का तात्पर्य है कि जैसे चमड़े से बनी हुई थैली में तलवार रखने से उसकी म्यान संज्ञा हो जाती है, ऐसे ही जीवात्मा के द्वारा इन तीनों शरीरों को अपना मानने से, अपने को इनमें रहने वाला मानने से इन तीनों शरीरों को ‘कोश’ संज्ञा हो जाती है। इस शरीर के ‘क्षेत्र’ कहने का तात्पर्य है कि यह प्रतिक्षण नष्ट होता, प्रतिक्षण बदलता है।[2] यह इतना जल्दी बदलता है कि इसको दुबारा कोई देख ही नहीं सकता अर्थात दृष्टि पड़ते ही जिसको देखा, उसको फिर दुबारा नहीं देख सकते; क्योंकि वह तो बदल गया। शरीर को क्षेत्र कहने का दूसरा भाव खेत से है। जैसे खेत में तरह-तरह के बीज डालकर खेती की जाती है, ऐसे ही इस मनुष्य-शरीर में अहंता-ममता करके जीव तरह-तरह के कर्म करता है। उन कर्मों के संसार अंतःकरण में पड़ते हैं। वे संस्कार जब फल के रूप में प्रकट होते हैं, तब दूसरा (देवता, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि का) शरीर मिलता है। जिस प्रकार खेत में जैसा बीज बोया जाता है, वैसा ही अनाज पैदा होता है, उसी प्रकार शरीर में जैसे क्म किए जाते हैं, उनके अनुसार ही दूसरे शरीर, परिस्थति आदि मिलते हैं। तात्पर्य है कि इस शरीर में किए गए कर्मों के अनुसार ही यह जीव बार-बार जन्म मरणरूप फल भोगता है। इसी दृष्टि से इसको क्षेत्र (खेत) गया है। अपने वास्तविक स्वरूप से अलग दिखने वाला यह शरीर प्राकृत पदार्थों से, क्रियाओं से, वर्ण-आश्रम आदि से ‘इदम्’ (दृश्य) ही है। यह है तो ‘इदम्’ पर जीव ने भूल से इसको ‘अहम्’ मान लिया और फँस गया। स्वयं परमात्मा का अंश एवं चेतन है, सबसे महान है। परंतु जब वह जड (दृश्य) पदार्थों से अपनी महत्ता मानने लगता है (जैसे, ‘मैं धनी हूँ’, ‘मैं विद्वान् हूँ’ आदि), तब वास्तव में वह अपनी महत्ता घटाता ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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