श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् । अर्थ- जो मनुष्य मुझे अजन्मा, अनादि और संपूर्ण लोकों का महान ईश्वर जानता है अर्थात दृढ़ता से मानता है, वह मनुष्यों में असम्मूढ़ (जानकार) है वह संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। व्याख्या- ‘यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्’- पीछे के श्लोक में भगवान के प्रकट होने को जानने का विषय नहीं बताया है। इस विषय को तो मनुष्य भी नहीं जानता, पर जितना जानने से मनुष्य अपना कल्याण कर ले, उतना तो वह जान ही सकता है। वह जानना अर्थात मानना यह है कि भगवान अज अर्थात जन्मरहित हैं। वे अनादि हैं अर्थात यह जो काल कहा जाता है, जिसमें आदि-अनादि शब्दों का प्रयोग होता है, भगवान उस काल के भी काल हैं। उन कालातीत भगवान में काल का भी आदि और अंत हो जाता है। भगवान संपूर्ण लोकों के महान ईश्वर हैं अर्थात स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल रूप जो त्रिलोकी है तथा उस त्रिलोकी में जितने प्राणी हैं और उन प्राणियों पर शासन करने वाले[1] जितने ईश्वर (मालिक) हैं, उन सब ईश्वरों के भी महान ईश्वर भगवान हैं। इस प्रकार जानने से अर्थात श्रद्धा-विश्वासपूर्वक दृढ़ता से मानने से मनुष्य को भगवान के अज, अविनाशी और लोकमहेश्वर होने में कभी किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होता। ‘असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते’- भगवान को अज, अविनाशी और लोकमहेश्वर जानने से मनुष्य पापों से मुक्त कैसे होगा? भगवान जन्मरहित हैं, नाशरहित हुई अर्थात उनमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। वे अजन्मा तथा अविनाशी रहते हुए ही सबके महान ईश्वर हैं। वे सब देश में रहने के नाते यहाँ भी हैं, सब समय में होने के नाते अभी भी हैं, सबके होने के नाते मेरे भी हैं और सबके मालिक होने के नाते मेरे अकेले भी मालिक हैं- इस प्रकार दृढ़ता से मान ले। इसमें संदेह की गंध भी न रहे। साथ-ही-साथ, यह जो क्षणभंगुर संसार है, जिसका प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है और जिसको जिस क्षण में जिस रूप में देखा है, उसको दूसरे क्षण में उस रूप में दुबारा कोई भी देख नहीं सकता; क्योंकि वह दूसरे क्षण में वैसा रहता ही नहीं- इस प्रकार संसार को यथार्थरूप से जान ले। जिसने अपने सहित सारे संसार के मालिक भगवान को दृढ़ता से मान लिया है और संसार की क्षणभंगुरता को तत्त्व से ठीक जान लिया है, उसका संसार में ‘मैं’ और ‘मेरा’ –पन रह ही नहीं सकता; प्रत्युत एकमात्र भगवान में ही अपनापन हो जाता है तो फिर वह पापों से मुक्त नहीं होगा, तो और क्या होगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अलग-अलग अधिकार प्राप्त
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