श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचम अध्याय
उत्तर- चौथे अध्याय में भगवान् ने कहीं भी कर्मों के स्वरूपतः त्याग की प्रशंसा नहीं की और न अर्जुन को ऐसा करने के लिये कहीं आज्ञा ही दी; बल्कि इसके विपरीत स्थान-स्थान पर निष्काम-भाव से कर्म करने के लिये कहा है।[1] अतएव यहाँ कर्म-संन्यास का अर्थ कर्मों का स्वरूपतः त्याग नहीं है। कर्म-संन्यास का अर्थ है- ‘सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर ऐसा समझना कि गुण ही गुणों में बरत रहे हैं,[2] तथा निरन्तर परमात्मा के स्वरूप में एकी भाव से स्थित रहना और सर्वदा सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि रखना[3]’, यहाँ यही ज्ञानयोग है- यही कर्म-संन्यास है। चौथे अध्याय में इसी प्रकार के ज्ञानयोग की प्रशंसा की गयी है और उसी के आधार पर अर्जुन का यह प्रश्न है। भगवान् ने यहाँ अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए ‘संन्यास’ और ‘कर्मयोग’ दोनों का ही कल्याणकारक बतलाया है और चौथे तथा पाँचवें श्लोकों में इसी ‘संन्यास’ को ‘सांख्य’ एवं पुनः छठे श्लोक में इसी को ‘संन्यास’ कहकर यह स्पष्ट कर दिया है कि यहाँ ‘कर्म-संन्यास’ का अर्थ सांख्ययोग या ज्ञानयोग है, कर्मों का स्वरूपतः त्याग नहीं है। इसके अतिरिक्त भगवान् के मत से कर्मों के स्वरूपतः त्यागमात्र से ही कल्याण भी नहीं होता[4] और कर्मों का स्वरूपतः सर्वथा त्याग होना सम्भव भी नहीं है।[5] इसलिये यहाँ कर्म-संन्यास का अर्थ ज्ञानयोग ही मानना चाहिये, कर्मों का स्वरूपतः त्याग नहीं। प्रश्न- अर्जुन ने तीसरे अध्याय के आरम्भ में यह पूछा ही था कि ‘ज्ञानयोग’ और ‘कर्मयोग’- इन दोनों में मुझको एक साधन बतलाइये, जिससे मैं कल्याण को प्राप्त कर सकूँ। फिर यहाँ उन्होंने दुबारा वही प्रश्न किस अभिप्राय से किया? उत्तर- वहाँ अर्जुन ने ‘ज्ञानयोग’ और ‘कर्मयोग’ के विषय में नहीं पूछा था, वहाँ तो अर्जुन के प्रश्न का यह भाव था कि ‘यदि आपके मत में कर्म के अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ है तो फिर मुझे घोर कर्म में क्यों लगा रहे हैं? आपके वचनों को मैं स्पष्ट समझ नहीं रहा हूँ, वे मुझे मिश्रित- से प्रतीत होते हैं अतएव मुझको एक बात बतलाइये।’ परन्तु यहाँ तो अर्जुन का प्रश्न ही दूसरा है। यहाँ अर्जुन न तो कर्म की अपेक्षा ज्ञान को श्रेष्ठ समझ रहे हैं और न भगवान् के वचनों को वे मिश्रित- से ही मान रहे हैं। वरन् वे स्वयं इस बात को स्वीकार करते हुए ही पूछ रहे हैं- ‘आप ‘ज्ञानयोग’ और ‘कर्मयोग’ दोनों की प्रशंसा कर रहे हैं और दोनों को पृथक्-पृथक् बतला रहे हैं[6] परन्तु अब यह बतलाइये कि इन दोनों में से मेरे लिये कौन-सा साधन श्रेयस्कर है?’ इससे सिद्ध है कि अर्जुन ने यहाँ तीसरे अध्याय वाला प्रश्न दुबारा नहीं किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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