श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- ‘अस्मिन् लोके’ पद इस मनुष्यलोक का वाचक है, क्योंकि ज्ञानयोग और कर्मयोग- इन दोनों साधनों में मनुष्यों का ही अधिकार है। प्रश्न- ‘निष्ठा’ पद का क्या अर्थ है और उसके साथ ‘द्विविधा’ विशेषण देने का क्या भाव है? उत्तर- ‘निष्ठा’ पद का अर्थ ‘स्थिति’ है। उसके साथ ‘द्विविधा’ विशेषण देकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि प्रधानता से साधन की स्थिति के दो भेद होते हैं- एक स्थिति में तो मनुष्य आत्मा और परमात्मा को अभेद मानकर अपने को ब्रह्म से अभिन्न समझता है और दूसरी में परमेश्वर को सर्वशक्तिमान् सम्पूर्ण जगत् के कर्ता, हर्ता, स्वामी तथा अपने को उनका आज्ञाकारी सेवक समझता है। प्रकृति से उत्पन्न सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं[1], मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है- ऐसा समझकर मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली समस्त क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से सर्वथा रहित हो जाना; किसी भी क्रिया में उसके फल में किंचिन्मात्र भी अहंता, ममता, आसक्ति और कामना का न रहना तथा सच्चिदानन्दघन ब्रह्म से अपने को अभिन्न समझकर निरन्तर परमात्मा के स्वरूप में स्थित हो जाना अर्थात् ब्रह्मभूत (ब्रह्मस्वरूप) बन जाना[2]- यह पहली निष्ठा है। इसका नाम ज्ञाननिष्ठा है। इस स्थिति को प्राप्त हो जाने पर योगी हर्ष, शोक और कामना से अतीत हो जाता है, उसकी सर्वत्र समदृष्टि हो जाती है[3]; उस समय वह सम्पूर्ण जगत् को आत्मा में स्वप्नवत् कल्पित देखता है और आत्मा को सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त देखता है।[4] इस निष्ठा या स्थिति का फल परमात्मा के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान है। वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्य के लिये जिन कर्मों का शास्त्र में विधान है- जिनका अनुष्ठान करना मनुष्य के लिये अवश्यकर्तव्य माना गया है - उन शास्त्रविहित स्वाभाविक कर्मों का न्यायपूर्वक, अपना कर्तव्य समझकर अनुष्ठान करना; उन कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके प्रत्येक कर्म की सिद्धि और असिद्धि में तथा उसके फल में सदा ही सम रहना[5] एवं इन्द्रियों के भोगों में और कर्मों में आसक्त न होकर समस्त संकल्पों का त्याग करके योगारूढ़ हो जाना[6]- यह कर्मयोग की निष्ठा हैं तथा परमेश्वर को सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार, सर्वव्यापी, सबके सुहृद् और सबके प्रेरक समझकर और अपने को सर्वथा उनके अधीन मानकर समस्त कर्म और उनका फल भगवान् के समर्पण करना[7]; उनकी आज्ञा और प्रेरणा के अनुसार उनकी पूजा समझकर जैसे वे करवावें, वैसे ही समस्त कर्म करना; उन कर्मों में या उनके फल में किंचिन्मात्र भी ममता, आसक्ति या कामना न रखना; भगवान् के प्रत्येक विधान में सदा ही सन्तुष्ट रहना तथा निरन्तर उनके नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का चिन्तन करते रहना[8]- यह भक्ति प्रधान कर्मयोग की निष्ठा है। उपर्युक्त कर्मयोग की स्थिति को प्राप्त हुए पुरुष में राग-द्वेष और काम-क्रोधादि अवगुणों का सर्वथा अभाव होकर उसकी सबमें समता हो जाती है, क्योंकि वह सबके हृदय में अपने स्वामी को स्थित देखता है[9] और सम्पूर्ण जगत् को भगवान् का ही स्वरूप समझता है।[10] इस स्थिति का फल भगवान् को प्राप्त हो जाना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3। 28
- ↑ 5। 24; 6। 27
- ↑ 18। 54
- ↑ 6। 29
- ↑ 2। 47-48
- ↑ 6। 4
- ↑ 3। 30; 9। 27-28
- ↑ 10। 9; 12। 6; 18। 57
- ↑ 15। 15; 18। 61
- ↑ 7। 7-12; 9। 16-19
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