श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि ये दो प्रकार की निष्ठाएँ मैंने आज तुम्हें नयी नहीं बतलायी हैं, सृष्टि के आदिकाल में और उसके बाद भिन्न-भिन्न अवतारों में मैं इन दोनों निष्ठाओं का स्वरूप अलग-अलग बतला चुका हूँ वैसे ही तुमको भी मैंने दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से लेकर तीसवें श्लोक तक अद्वितीय आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए सांख्ययोग की दृष्टि से युद्ध करने के लिये कहा है[1] और उनतालीसवें श्लोक में योग विषयक बुद्धि का वर्णन करने की प्रस्तावना करके चालीसवें से तिरपनवें श्लोक तक फलसहित कर्मयोग का वर्णन करते हुए योग में स्थित युद्धादि कर्तव्यकर्म करने के लिये कहा है[2]; तथा दोनों का विभाग करने के लिये उनतालीसवें श्लोक में स्पष्ट रूप से यह भी कह दिया है कि इसके पूर्व मैंने सांख्यविषयक उपदेश दिया है और अब योगविषयक उपदेश कहता हूँ। इसलिये मेरा कहना ‘व्यामिश्र’ अर्थात् ‘मिला हुआ’ नहीं है। प्रश्न- ‘अनघ’ सम्बोधन का क्या भाव है? उत्तर- जो पापरहित हो, उसे ‘अनघ’ कहते हैं। अर्जुन को ‘अनघ’ नाम से सम्बोधित करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जो पापयुक्त या पापपरायण मनुष्य है, वह तो इनमें से किसी भी निष्ठा को नहीं पा सकता; पर तुम पापरहित हो, अतः तुम इनको सहज ही प्राप्त कर सकते हो, इसलिये मैंने तुमको यह विषय सुनाया है। प्रश्न- सांख्ययोगियों की निष्ठा ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से होती है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया है कि उन दोनों प्रकार की निष्ठाओं में से जो सांख्यायोगियों की निष्ठा है, वह तो ज्ञानयोग का साधन करते-करते देहाभिमान का सर्वथा नाश होने पर सिद्ध होती है और कर्मयोगियों की निष्ठा है, वह कर्मयोग का साधन करते-करते कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का अभाव सिद्धि-असिद्धि में समत्व होने पर होती है। उपर्युक्त इन दोनों निष्ठाओं के अधिकारी पूर्व संस्कार, श्रद्धा और रुचि के अनुसार, अलग-अलग होते हैं और ये दोनों निष्ठाएँ स्वतंत्र हैं। प्रश्न- यदि कोई मनुष्य ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों का एक साथ सम्पादन करे, तो उसकी कौन-सी निष्ठा होती है? उत्तर- ये दोनों साधन परस्पर भिन्न हैं, अतः एक ही मनुष्य एक काल में दोनों साधन नहीं कर सकता; क्योंकि सांख्ययोग के साधन में आत्मा और परमात्मा में अभेद समझकर परमात्मा के निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघनरूप का चिन्तन किया जाता है और कर्मयोग में फलासक्ति के त्यागपूर्वक कर्म करते हुए भगवान् को सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् और सर्वेश्वर समझकर उनके नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का उपास्य-उपासक भाव से चिन्तन किया जाता है। इसलिये दोनों का अनुष्ठान एक साथ, एक काल में, एक ही मनुष्य के द्वारा नहीं किया जा सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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