श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- किसी की जड़ वस्तु की उपमा देकर स्थितप्रज्ञ पुरुष की वास्तविक स्थिति का पूर्णतया वर्णन करना सम्भव नहीं है; तथापि उपमा द्वारा उस स्थिति के किसी अंश का लक्ष्य कराया जा सकता है। अतः समुद्र की उपमा से यह भाव समझना चाहिये कि जिस प्रकार समुद्र ‘आपूर्यमाणम्’ यानी अथाह जल से परिपूर्ण हो रहा है, उसी प्रकार स्थितप्रज्ञ अनन्त आनन्द से परिपूर्ण है। जैसे समुद्र को जल की आवश्यकता नहीं है, वैसे ही स्थितप्रज्ञ पुरुष को भी किसी सांसारिक सुख-भोग की तनिकमात्र भी आवश्यकता नहीं है, वह सर्वथा आप्तकाम है। जिस प्रकार समुद्र की स्थिति अचल है, भारी-से-भारी आँधी-तूफान आने पर या नाना प्रकार से नदियों के जल प्रवाह उसमें प्रविष्ट होने पर भी वह अपनी स्थिति से विचलित नहीं होता, मर्यादा का त्याग नहीं करता, उसी प्रकार परमात्मा के स्वरूप में स्थित योगी की स्थिति भी सर्वथा अचल होती है, बड़े-से-बड़े सांसारिक सुख-दुःखों का संयोग-वियोग होने पर भी उसकी स्थिति में जरा भी अन्तर नहीं पड़ता, वह सच्चिदानन्दघन परमात्मा में नित्य-निरन्तर अटल और एकरस स्थित रहता है। प्रश्न- ‘सर्वे’ विशेषण के सहित ‘कामाः’ पद यहाँ किनका वाचक है और उनका समुद्र में जलों की भाँति स्थितप्रज्ञ में समा जाना क्या है? उत्तर- यहाँ ‘सर्वे’ विशेषण के सहित ‘कामाः’ पद ‘काम्यन्त इति कामाः’ अर्थात् जिनके लिये कामना की जाय उनका नाम काम होता है- इस व्युत्पत्ति के अनुसार सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों का वाचक है, इच्छाओं का वाचक नहीं। क्योंकि स्थितिप्रज्ञ पुरुष में कामनाओं का तो सर्वथा अभाव ही हो जाता है, फिर उनका उसमें प्रवेश कैसे बन सकता है? अतएव जैसे समुद्र को जल की आवश्यकता न रहने पर भी अनेक नद-नदियों के जलप्रवाह उसमें प्रवेश करते रहते हैं परंतु नदी और सरोवरों की भाँति न तो समुद्र में बाढ़ आती है और न वह अपनी स्थिति से विचलित होकर मर्यादा का ही त्याग करता है, सारे-के-सारे जलप्रवाह उसमें बिना किसी प्रकार की विकृति उत्पन्न किये ही विलीन हो जाते हैं, वैसे ही स्थितप्रज्ञ पुरुष को किसी भी सांसारिक भोग की किंचिन्मात्र भी आवश्यकता न रहने पर भी उसे प्रारब्ध के अनुसार नाना प्रकार के भोग प्राप्त होते रहते हैं- अर्थात् उसक मन, बुद्धि और इन्द्रियों के साथ प्रारब्ध के अनुसार नाना प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल विषयों का संयोग होता रहता है। परंतु वे भोग उसमें हर्ष-शोक, राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह, भय और उद्वेग या अन्य किसी प्रकार का कोई भी विकार उत्पन्न करके उसे उसकी अटल स्थिति से या शास्त्रमर्यादा से विचलित नहीं कर सकते, उनके संयोग से उसकी स्थिति में कभी किंचिन्मात्र भी अन्तर नहीं पड़ता; वे बिना किसी प्रकार का क्षोभ उत्पन्न किये ही उसके परमानन्दमय स्वरूप में तद्रूप होकर विलीन हो जाते हैं- यही उनका समुद्र में जलों की भाँति स्थितप्रज्ञ में समा जाना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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