श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- अट्ठावन वे श्लोक में भगवान् अर्जुन के ‘किमासीत’ ‘कैसे बैठता है’ इस तीसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए स्थितप्रज्ञ पुरुष की अक्रिय-अवस्था का वर्णन कर रहे हैं; इसीलिए वहाँ कछुए का दृष्टान्त देकर ‘संहरते’ पद से ‘विषयों से हटा लेना’ कहा है। बाह्य रूप में इन्द्रियों को विषयों से हटा लेना तो साधारण मनुष्य के द्वारा भी बन सकता है; परंतु वहाँ के हटा लेने में विलक्षणता है, क्योंकि वह स्थितिप्रज्ञ पुरुष का लक्षण है; अतएव आसक्ति रहित मन और इन्द्रियों का संयम भी इस हटा लेने के साथ ही है और यहाँ भगवान् स्थितप्रज्ञ की स्वाभाविक अवस्था का वर्णन करते हैं, इसीलिये यहाँ ‘निगृहीतानि’ पद आया है। विषयों की आसक्ति से रहित होने पर ही सब ओर से मन-इन्द्रियों का ऐसा निग्रह होता है। ‘नि’ उपसर्ग और ‘सर्वशः’ विशेषण से भी यही सिद्ध होता है। अतः दोनों की वास्तविक स्थिति में कोई अन्तर न होेने पर भी वहाँ अक्रिय-अवस्था का वर्णन है और यहाँ सब समय की साधारण अवस्था का, यही दोनों का अन्तर है। प्रश्न- उसकी बुद्धि स्थिर है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जिसकी मनसहित समस्त इन्द्रियाँ उपर्युक्त प्रकार से वश में की हुई हैं उसी की बुद्धि स्थिर है; जिसके मन और इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, उसकी बुद्धि स्थिर नहीं रह सकती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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