श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय सम्बन्ध- इस प्रकार अंग-प्रसंगों सहित संन्यास का यानी सांख्ययोग का स्वरूप बतलाकर अब उस साधन द्वारा ब्रह्मभाव को प्राप्त हुए योगी के लक्षण और उसे ज्ञानयोग की परानिष्ठारूप पराभक्ति का प्राप्त होना बतलाते हैं- ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
उत्तर- जो सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्न-भाव से स्थित हो जाता है; जिसकी दृष्टि में एक सच्चिदानन्दघन ब्रह्म से भिन्न किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं रहती; ‘अहं ब्रह्मास्मि’-मैं ब्रह्म हूँ[1], ‘सोऽहमस्मि’-वह ब्रह्म ही मैं हूँ, आदि महावाक्यों के अनुसार जिसकी परमात्मा में अभिन्नभाव से नित्य अटल स्थिति हो जाती है,- ऐसे सांख्ययोगी का वाचक यहाँ ‘ब्रह्मभूतः’ पद है। पाँचवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक में और छठे अध्याय के सत्ताईसवें श्लोक में भी इस स्थिति वाले योगी को ‘ब्रह्मभूत’ कहा है? प्रश्न- ‘प्रसन्नात्मा’ पद का क्या भाव है? उत्तर- जिसका मन पवित्र, स्वच्छ और शान्त हो तथा निरन्तर शुद्ध प्रसन्न रहता हो- उसे ‘प्रसन्नात्मा’ कहते हैं; इस विशेषण का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया है कि ब्रह्मभाव को प्राप्त हुए पुरुष की दृष्टि में एक सच्चिदानन्दघन ब्रह्म से भिन्न किसी भी वस्तु की सत्ता न रहने के कारण उसका मन निरन्तर प्रसन्न रहता है, कभी किसी भी कारण से क्षुब्ध नहीं होता। प्रश्न- ब्रह्मभूत योगी न तो शोक करता है और न आकांक्षा ही करता है, इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इस कथन से ब्रह्मभूत योगी का लक्षण किया गया है। अभिप्राय यह है कि ब्रह्मभूत योगी की सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि हो जाने के कारण संसार की किसी भी वस्तु में उसकी भिन्न प्रतीति, रमणीय-बुद्धि और ममता नहीं रहती। अतएव शरीरादि के साथ किसी का संयोग-वियोग होने में उसका कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं। इस कारण वह किसी भी हालत में किसी भी कारण से किंचिन्मात्र भी चिंता या शोक नहीं करता। और वह पूर्णकाम हो जाता है, क्योंकि किसी भी वस्तु में उसकी ब्रह्म से भिन्न दृष्टि नही रहती, इस कारण वह कुछ भी नहीं चाहता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बृहदारण्यक उ. 1। 4। 10
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