श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
अध्याय का नाम- जन्म-मरणरूप संसार के बंधन से सदा के लिये छूटकर परमानन्दस्वरूप परमात्मा को प्राप्त कर लेने का नाम मोक्ष है; इस अध्याय में पूर्वोक्त समस्त अध्यायों का सार संग्रह करके मोक्ष के उपायभूत सांख्य योग का संन्यास के मान से और कर्मयोग का त्याग के मान से अंग-प्रत्यंगोंसहित वर्णन किया गया है, इसलिये तथा साक्षात् मोक्षरूप परमेस्वर में सर्व कर्मों का संन्यास यानी त्याग करने के लिये कहकर उपदेश का उपसंहार किया गया है[1], इसलिये भी इस अध्याय का नाम ‘मोक्षसंन्यास योग’ रखा गया है। अध्याय का संक्षेप- इस अध्याय के पहले शब्दलोक में अर्जुन ने संन्यास और त्याग का तत्त्व जानने की इच्छा प्रकट की है; दूसरे और तीसरे में भगवान् ने इस विषय में दूसरे विद्वानों की मान्यता का वर्णन किया है; चौथे और पाँचवें में अर्जुन को त्याग के विषय में अपना निश्चय सुनने के लिये कहकर कर्तव्य कर्मों को स्वरूप से न त्यागने का औचित्य सिद्ध किया है; तथा छठे में त्याग के सम्बन्ध में अपना निश्चय मत बतलाया है और उसे अन्य मतों की अपेक्षा उत्तम कहा है। तदनन्तर सातवें, आठवें और नवें में, क्रमशः तामस, राजस और सात्त्विक त्याग के लक्षण बताकर दसवें और ग्यारहवें में सात्त्विक त्यागी के लक्षणों का वर्णन किया है। बारहवें में त्यागी पुरुषों के महत्त्व का प्रतिपादन करके त्याग के प्रसंग का उपसंहार किया है। तत्पश्चात् पंद्रहवें तक अर्जुन को सांख्य (संन्यास)- का विषय सुनने के लिये कहकर सांख्य-सिद्धान्त के अनुसार कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठानादि पाँच हेतुओं का वर्णन किया है और सोलहवें में शुद्ध आत्मा को कर्ता समझने वाले की निन्दा करके सत्रहवें में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर कर्म करने वाले की प्रसंसा की है। अठारहवें में कर्म-प्रेरणा और कर्म-संग्रह का स्वरूप् बतलाकर उन्नीसवें में ज्ञान, कर्म और कर्ता के त्रिविध भेद बतलाने की प्रस्तावना करते हुए बीसवें से अट्ठाईसवें तक क्रमसः उनके सात्त्विक, राजस और तामस भेदों का वर्णन किया है। उन्तीसवें में बुद्धि और धृति के त्रिविध भेदों को बतलाने की प्रस्तावना करके तीसवें से पैंतीसवें तक क्रमशः उनके सात्त्विक, राजस और तामस भेदों का वर्णन किया है। छत्तीसवें से उनतालीसवें तक सुख के सात्त्विक, राजस और तामस- तीन भेद बतलाकर चालीसवें श्लोक में गुणों के प्रसंग का उपसंहार करते हुए समस्त जगत् को त्रिगुण में बतलाया है। उसके बाद इकतालीसवें में चारों वर्णों के स्वाभाविक कर्मों का प्रसंग आरम्भ करके बयालीसवें में ब्राह्मणों के, तैंतालीसवें में क्षत्रियों के और चौंवालीसवें में वैश्यों तथा शूद्रों के स्वभाविक कर्मों का वर्णन किया है। पैंतालीसवें में अपने-अपने वर्णधर्म के पालन से परम सिद्धि को प्राप्त काने की बात कहकर छियालीसवें में उसकी विधि बतलायी है, फिर सैंतालीसवें और अड़तालीसवें में स्वधर्म की प्रशंसा करते हुए उसके त्याग का निषेध किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18/66
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