श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
उत्तर- हवन, दान और तप तथा अन्यान्य शुभ कर्म श्रद्धापूर्वक किये जाने पर ही अन्तःकारण- की शुद्धि में और इस लोक या परलोक के फल देने में समर्थ होते हैं। बिना श्रद्धा के किये हुए शुभ कर्म व्यर्थ हैं, इसी से उनको ‘असत्’ और वे इस लोक या परलोक में कहीं भी लाभप्रद नहीं हैं’- ऐसा कहा है। प्रश्न- ‘यत्’ के सहित ‘कृतम्’ पद का अर्थ यदि निषिद्ध कर्म भी मान लिया जाय तो क्या हानि है? उत्तर- निषिद्ध कर्मों के करने में श्रद्धा की आवश्यकता नहीं है और अनका फल भी श्रद्धा पर निर्भर नहीं है। उनको करते भी वे ही मनुष्य हैं, जिनकी शास्त्र, महापुरुष और ईश्वर में पूर्ण श्रद्धा नहीं होती तथा पापकर्मों का फल मिलने का जिनको विश्वास नहीं होता; तथापि उनका दुःखरूप् फल उन्हें अवश्य ही मिलता है। अतएव यहाँ ‘यत्कृतम्’ से पापकर्मों का ग्रहण नहीं है। उसके सिवा यज्ञ, दान और तपरूप् शुभ क्रियाओं के साथ-साथ आये हुए ‘यत्कृतम्’ पद उसी जाति की क्रिया के वाचक हो सकते हैं। अतः जो यह बात कही गई है कि वे कर्म इस लोक या परलोक में कहीं भी लाभप्रद नहीं होते-सो यह कहना भी पाप कर्मों के उपयुक्त नहीं होता, क्योंकि वे सर्वथा दुःख के हेतु होने के कारण उनके लाभप्रद होने की कोई सम्भावना ही नहीं है। अतएव यहाँ बिना श्रद्धा के किये हुए शुभ कर्मों का ही प्रसंग है, अशुभ कर्मों का नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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