- महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 66 में कौरवों का स्वदेश को प्रस्थान करने का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
अर्जुन एवं भीष्म के मध्य युद्ध
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! मनुष्यों में प्रणान वीर अर्जुन को इस प्रकार जाते देख वेगशाली भीष्म ने बाण मारकर उन्हें घायल कर दिया। तब अर्जुन ने भी भीष्म के घोड़ों को मारकर दा बाणों से उन्हें भी घायल कर दिया। दुर्भेद्य धनुष वाले अर्जुन भीष्म को युद्ध भूमि में छोड़कर और उनके सारथि को बाण से बींधकर रथों के घेरे से बाहर जा खड़े हुए। उस समय वे बादलों को छिन्न भिन्न करके प्रकाशित होने वाले सूर्य देव की भाँति शोभा पा रहे थे। थोड़ी देर बाद होश में आकर कौरव वीरों ने देखा, देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी कुन्ती पुत्र अर्जुन युद्ध में रथों के घेरे से बाहर हो अकेले खड़े हैं।
दुर्योधन एवं भीष्म का संवाद
उन्हें इस अवस्था में देखकर धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन तुरंत बोल उठा- ‘पितामह! यह आपके हाथ से कैसे बच गया? आप इसे इस प्रकार मथ डालिये, जिससे यह छूटने प पावे।’ तब शान्तनु नन्दन भीष्म ने हँसकर दुर्योधन से कहा- ‘राजन्! जब तू अपने विचित्र धनुष और बाणों को त्यागकर यहाँ गहरी शानित में डूबा हुआ अचेत पड़ा था, उस समय तेरी बुद्धि कहाँ गयी थी? और पराक्रम कहाँ था?
‘ये अर्जुन कभी निर्दयता का व्यवहार नहीं कर सकते। इनका मन कभी पापाचार में प्रवृत्त नहीं होता। ये त्रिलोकी के राज्य के लिये भी अपना धर्म नहीं छोड़ सकते। यही कारण है कि इन्होंने इस युद्ध में हम सबके प्राण नहीं लिये। कुरुकुल के प्रमुख वीर! अब तू शीघ्र ही कुरु देश को लौट चल। अर्जुन भी गायों को जीतकर लौट जायँ। अब मोहवश मेरा अपना स्वार्थ भी नष्ट न हो जाय, इसका ध्यान रख। सबको वही काम करना चाहिये, जिससे अपना कल्याण हो’।
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पितामह के ये अपने लिये हितकर वचन सुनकर राजा दुर्योधन के मन में युद्ध की इच्छा नहीं रह गयी। वह भीतर ही भीतर अत्यन्त अमर्ष का भार लिये लंबी साँसें भरता हुआ चुप सा हो गया। अन्य सब योद्धाओं को भी भीष्म जी का वह कथन हितकर जान पड़ा; क्योंकि युद्ध करने से तो धनुजय रूपी अग्नि उत्तरोत्तर बढत्रकर प्रचण्ड रूप ही धारण करती जाती, यह सब सोचकर उन सबने दुर्योधन की रक्षा करते हुए अपने देश को लौट जाने का ही निश्चय किया। उन कौरव वीरों को वहाँ से प्रस्थान करते देख कुन्ती पुत्र धनंजय मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए। वे दो घड़ी तक किसी से अनुनय विनयपूर्ण वचन न कहकर मौन रहे। फिर लौटकर उन्होंने वृद्ध पितामह भीष्म और गुरु द्रोण के चरणों में मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और कुछ बातचीत भी की। फिर अश्वत्थामा, कृपाचार्य तथा अन्य माननीय ( बाह्लीक, सोमदत्त आदि ) कौरवों को बाणों की विचित्र रीति से नमस्कार करके पार्थ ने एक बाण मारकर दुर्योधन के उत्तम रत्न जटित विचित्र मुकुट को काट डाला।
कौरवों का स्वदेश को प्रस्थान
इसी प्रकार अन्य माननीय वीरों से भी विदा ले गाण्डीव की अंकार से सम्पूर्ण जगत को प्रतिध्वनित करके वीर अर्जुन ने सहसा देवदत्त नामक शंख बजाया और शत्रुओं का दिल दहला दिया। इस प्रकार अपने रथ की सुवर्ण माला मण्डित ध्वजा से सम्पूर्ण शत्रुओं का तिरस्कार करके अर्जुन विजयोल्लास से विशेष शोभा पाने लगे। कौरव चले गये, यह देखकर किरीटधारी अर्जुन को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने मत्स्य नरेश के पुत्र उत्तर से वहाँ इस प्रकार कहा- ‘राजकुमार! अब घोड़ों को लौटाओ। तुम्हारी गौओं को जीत लिया गया और शत्रु भाग गये; इसलिये अब तुम आनन्द पूर्वक नगर की ओर चलो’।
अर्जुन के साथ होने वाला कौरवों का अत्यन्त अद्भुत युद्ध देखकर देवता लोग बड़े प्रसन्न हुए और अर्जुन के पराक्रम का स्मरण करते हुए अपने-अपने भवन को चले गये।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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गोहरण पर्व
दुर्योधन को उसके गुप्तचरों द्वारा कीचकवध का वृत्तान्त सुनाना
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